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श्रीमद्भागवत प्रवचन -स्वामी तेजोमयानन्द
10.विदुर जी के उपदेश से धृतराष्ट्र व गांधारी का वन-गमन
अब आगे की कथा का सन्दर्भ दर्शाने के लिये थोड़ा विदुरजी के विषय में बताते हैं। विदुरजी कौन थे? धृतराष्ट्र का नाम तो सबने सुना ही है, वह भीतर-बाहर दोंनो से अन्धा था, केवल आँख से नहीं। अधिक ममता आदमी को अन्धा बना देती है। धृतराष्ट्र का एक भाई था पाण्डु। धृतराष्ट्र के पुत्र थे दुर्योधन, दुःशासन आदि और पाण्डु के पुत्र युधिष्ठिरादि पंच पाण्डव । विदुर जी राजा धुतराष्ट्र के ही सबसे छोटे भाई थे। वे दासीपुत्र थे। साक्षात यमराज थे। यमराज को कोई शाप मिला था, इसलिये वे दासीपुत्र बनकर आये थे। तो ये विदुरजी बड़े धर्मात्मा थे। जब महाभारत का युद्ध होने वाला था तब विदुरजी तीर्थयात्रा पर चले गये थे। बोले मुझे इससे कोई मतलब नहीं। विदुरजी की धर्मानुकूल, न्याय संगत बात किसी ने सुनी नहीं थी। इसलिए वे वहाँ से चले गये और तीर्थयात्रा करके वापस भी आ गए। उनको रास्ते में ही कौरवों के और अन्य सबके नाश का पता चल गया था और भगवान श्रीकृष्ण के ‘लीला-संवरण’ का भी पता लग गया था। वे वापस लौट आए और धृतराष्ट-गांधारी को धर्म का उपदेश देकर उन्हें हिमालय की ओर ले गए। वहाँ उन दोनों की मुक्ति भी हो गई। इसके बाद विदुरजी की कथा का प्रसंग आता है। विदुरजी आगे मैत्रेय ऋषि से मिलते है; यह कथा तृतीय स्कन्ध में विस्तार से आने वाली है। अतः अभी हम परीक्षित की कथा पर आते हैं। जब युधिष्ठिर ने देखा कि चारों ओर भयंकर उत्पात हो रहे हैं तो उनक मन शंकित हो गया। उसी समय अर्जुन द्वारका से लौट आये। उन्हीं से युधिष्ठिर को पता चला कि भगवान श्रीकृष्ण धराधाम से चले गए हैं। तब उन्होंने कहा- अब इस लोक में रहने का कोई लाभ नहीं है। यहाँ कलि का प्रभाव बहुत बढ़ गया है। फिर परीक्षित को राज सिंहासन पर बिठाकर युधिष्ठिर राज्य से निकल पड़े। उनके पीछे चारों भाई तथा द्रौपदी भी निकल पड़ी। सब-के-सब हिमालय पर चले गए। अब चूँकि ये हमारी कथा के मुख्य पात्र नहीं हैं, हम इस प्रसंग को विस्तार से नहीं देखेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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