सप्तषष्टयधिकशततम (167) अध्याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: सप्तषष्टयधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कठोर व्रत वाले उस ब्राह्मण से यह सुनकर उन सब महाबली कुन्ती पुत्रों का मन विचलित हो गया। तब सत्यवादिनी कुन्ती ने अपने सभी पुत्रों का मन उस स्वयंवर की ओर आकृष्ट देख युधिष्ठिर से इस प्रकार कहा। कुन्ती बोली- बेटा! हम लोग यहाँ इन महात्मा ब्राह्मण के घर में बहुत दिनों से रह रहे हैं। इस रमणीय नगर में हम आनन्दपूर्वक घूमे-फिरे और यहाँ हमें (पर्याप्त) भिक्षा भी उपलब्ध हुई। शत्रुदमन! यहाँ जो रमणीय वन और उपवन हैं, उन सबको हमने बार-बार देख लिया। वीर! यदि उन्हीं को हम फिर देखने के लिये जायं तो वे हमें उतनी प्रसन्नता नहीं दे सकते। कुरुनन्दन! अब भिक्षा भी यहाँ हमें पहले-जैसी नहीं मिल रही है। यदि तुम्हारी राय हो तो अब हम लोग सुखपूर्वक पंचाल देश में चलें। वीर! उस देश को हमने पहले कभी नहीं देखा है, इसलिये वह बड़ा रमणीय प्रतीत होगा। शत्रुनाशन! सुना जाता है, पंचालदेश में बड़ा सुकाल है (इसलिये भिक्षा बहुतायत मिलती है)। हमने यह भी सुना है कि राजा यज्ञसेन ब्राह्मणों के बड़े भक्त हैं। बेटा! एक स्थान पर बहुत दिनों तक रहना मुझे उचित नहीं जान पड़ता; यदि तुम ठीक समझो तो हम लोग सुखपूर्वक वहाँ चलें। युधिष्ठिर ने कहा- मां! आप जिस कार्य को ठीक समझती हैं, वह हमारे लिये परम हितकर है; परंतु अपने छोटे भाइयों के सम्बन्ध में मैं नहीं जानता कि वे आने के लिये उद्यत हैं या नहीं। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तब कुन्ती ने भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव से भी चलने के विषय में पूछा। उन सबने भी ‘तथास्तु’ कहकर स्वीकृति दे दी। राजन्! तब कुन्ती ने उन ब्राह्मण देवता से विदा लेकर अपने पुत्रों के साथ महात्मा द्रुपद की रमणीय नगरी की ओर जाने की तैयारी की। इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत चैत्ररथ पर्व में पंचालदेश की यात्राविषयक एक सौ सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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