महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 125 श्लोक 1-19

पञ्चविंशत्‍यधिकशततम (125) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: पञ्चविंशत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर का आशा विषयक प्रश्‍न- उत्तर में राजा सुमित्र और ऋषभ नामक ऋषि के इतिहास का आरम्‍भ, उसमें राजा सुमित्र का एक मृग के पीछे दौड़ना


युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! आपने पुरुष में शील को ही प्रधान बताया है। अब मैं जानना चाहता हूँ कि आशा की उत्‍पत्ति कैसे हुई? आशा क्‍या है? यह भी मुझे बताइये। शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले पितामह! मेरे मन में यह महान संशय उत्‍पन्‍न हुआ है। इसका निवारण करने वाला आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है। पितामह! दुर्योधन पर मेरी बड़ी भारी आशा थी कि युद्ध का अवसर उपस्थित होने पर वह उचित कार्य करेगा। प्रभो! मैं समझता हूँ कि वह युद्ध किये बिना ही मुझे आधा राज्‍य लौटा देगा। प्राय: सभी मनुष्‍यों के हदय में कोई-न-कोर्इ बड़ी आशा पैदा होती ही है। उसके भंग होने पर महान दु:ख होता है। किसी-किसी की मृत्‍यु तक हो जाती है, इसमें संशय नहीं है। राजेन्‍द्र! उस दुरात्‍मा धृतराष्ट्र पुत्र ने मुझ दुबुद्धि को हताश कर दिया। देखिये, मैं कैसा मन्‍दभाग्‍य हूँ। राजन! मैं आशा को वृक्ष सहित पर्वत से भी बहुत बड़ी मानता हूँ अथवा वह आकाश से भी बढ़कर अप्रमेय है। कुरुश्रेष्ठ! यह अचिन्‍त्‍य और परम दुर्लभ है- उसे जीतना कठिन है। उसके दुर्लभ या दुर्जय होने के कारण ही मैं उसे इतनी बड़ी देखता और समझाता हूँ। भला, आशा से बढ़कर दुर्लभ और क्‍या है?

भीष्‍म जी ने कहा- युधिष्ठिर! इस विषय में मैं राजा सुमित्र तथा ऋषभ मुनि का पूर्वघटित इतिहास तुम्‍हें बताऊँगा। उसे ध्‍यान देकर सुनो।

राजर्षि सुमित्र हैहयवंशी राजा थे। एक दिन वे शिकार खेलने के लिये वन में गये। वहाँ उन्‍होंने झुकी हुई गांठवाले बाण से एक मृग को घायल करके उसका पीछा करना आरम्‍भ्‍ा किया। वह मृग बहुत तेज दौड़ने वाला था। वह राजा का बाण लिये-दिेये भाग निकला। राजा ने भी बलपूर्वक मृगों के उस यूथपति का तुरंत पीछा किया। राजेन्‍द! शीघ्रतापूर्वक भागने वाला वह मृग वहाँ से नीची भूमि की ओर दोड़ा। फिर दो ही घड़ी में वह समतल मार्ग से भागने लगा। राजा भी नौजवान और हार्दिक बल से सम्‍पन्‍न थे, उन्‍होंने कवच बाँध रखा था। वे धनुष-बाण और तलवार लिये उसका पीछा करने लगे। उधर वह वन में विचरने वाला मृग अकेला ही अनेकों नदों, नदियों, ग्ड्ढों और जंगलों को बारंबार लांघता हुआ आगे-आगे भागता जा रहा था। राजन! वह वेगशाली मृग अपनी इच्‍छा से ही राजा के निकट आ-जाकर पुन: बड़े वेग से आगे भागता था।

राजेन्‍द्र! यद्यपि राजा के बहुत-से बाण उसके शरीर में धंस गये थे, तथापि वह वनचारी मृग खेल करता हुआ-सा बारंबार उनके निकट आ जाता था। राजेन्‍द्र! वह मृग समूहों का सरदार था। उसका वेग बड़ा तीव्र था। वह बारंबार बड़े वेग से छलाँग मारता और दूर तक की भूमि लाँघ-लाँघकर पुन: निकट आ जाता था। तब शत्रुसूदन नरेश ने एक बड़ा भयंकर तीखा बाण हाथ में लिया, जो मर्मस्‍थलों को विदीर्ण कर देने वाला था। उस श्रेष्ठ बाण को उन्‍होंने धनुष पर रखा। यह देख मृगों का वह यूथपति राजा के बाण का मार्ग छोड़कर दो कोस दूर जा पहुँचा और हँसता हुआ-सा खड़ा हो गया। जब राजा का वह तेजस्‍वी बाण पृथ्‍वी पर गिर पड़ा, तब मृग एक महान वन में घुस गया, राजा ने उस समय भी उसका पीछा नहीं छोड़ा।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तगर्त राजधर्मानुशासनपर्व में ॠषभगीता विषयक एक सौ पचीसवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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