षण्णवतितम (96) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: षण्णवतितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर प्रचुर दक्षिणा देने वाले कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर ने गया से प्रस्थान किया और अगस्त्याश्रम में जाकर दुर्जय मणिमती नगरी में निवास किया। वहीं वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर ने महर्षि लोमश से पूछा- ब्रह्मन! अगस्त्य जी ने यहाँ वातापि को किसलिये नष्ट किया। मुनष्य का विनाश करने वाले उस दैत्य का प्रभाव कैसा था? और महात्मा अगस्त्य जी के मन में क्रोध का उदय कैसे हुआ? लोमश जी ने कहा- कौरवनन्दन! पूर्वकाल की बात है, इस मणिमती नगरी में इल्वल नामक दैत्य रहता था। वातापि उसी का छोटा भाई था। एक दिन दितिनन्दन इल्वल ने एक तपस्वी ब्राह्मण से कहा- ‘भगवन् आप मुझे ऐसा पुत्र दें, जो इन्द्र के समान पराक्रमी हो।‘ उन ब्राह्मण देवता ने इल्वल को इन्द्र के समान पुत्र नहीं दिया। इससे वह असुर उन ब्राह्मण देवता पर बहुत कुपित हो उठा। राजन्! तभी से इल्वल दैत्य क्रोध में भरकर ब्राह्मणों की हत्या करने लगा। वह मायावी अपने भाई वातापि को माया से बकरा बना देता था। वातापि भी इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ था, अत: वह क्षण भर में भेड़ा और बकरा बन जाता था। फिर इल्वल उस भेड़ या बकरे को पकाकर उस का मांस रांधता और किसी ब्राह्मण को खिला देता था। इसके बाद वह ब्राह्मण को मारने की इच्छा करता था। इल्वल में यह शक्ति थी कि वह जिस किसी भी यमलोक में गये हुए प्राणी को उसका नाम लेकर बुलाता, वह पुन: शरीर धारण करके जीवित दिखायी देने लगता था। उस दिन वातापि दैत्य को बकरा बनाकर इल्वल ने उसके मांस का संस्कार किया औरउन ब्राह्मण देव को वह मांस खिलाकर पुन: अपने भाई को पुकारा। राजन्! इल्वल के द्वारा उच्च स्वर से बोली हुई वाणी सुनकर वह अत्यन्त मायावी ब्राह्मणशत्रु बलवान् महादैत्य वातापि उस ब्राह्मण की पसली को फाड़कर हंसता हुआ निकल आया। राजन्! इस प्रकार दुष्ट हृदय इल्वल दैत्य बार-बार ब्राह्मण को भोजन कराकर अपने भाई द्वारा उनकी हिंसा करा देता था। (इसलिए अगस्त्य मुनि ने वातापि को नष्ट किया था)। इन्हीं दिनों भगवान अगस्त्य मुनि कहीं चले जा रहे थे। उन्होंने एक जगह अपने पितरों को देखा, जो एक गड्डे में नीचे मुंह किये लटक रहे थे। तब उन लटकते हुए पितरों से अगस्त्य जी ने पूछा- ‘आप लोग यहाँ किसलिये नीचे मुंह किये कांपते हुए से लटक रहे हैं?' यह सुनकर उन वेदवादी पितरों ने उतर दिया- ‘संतान परम्परा के लोप होने की सम्भावना के कारण हमारी यह दुर्दशा हो रही हैं’। उन्होंने अगस्त्य के पूछने पर बताया कि- 'हम तुम्हारे ही पितर हैं। संतान के इच्छुक होकर इस गड्डे में लटक रहें हैं। अगस्त्य! यदि तुम हमारे लिये उत्तम संतान उत्पन्न कर सको तो हम नरक से छुटकारा पा सकते हैं और बेटा! तुम्हें भी सदगति प्राप्त होगी‘। तब सत्यधर्मपरायण तेजस्वी अगस्त्य ने उनसे कहा– ‘पितरो! मैं आपकी इच्छा पूर्ण करूँगा। आपकी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिए’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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