महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 16 श्लोक 1-18

षोडश (16) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

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महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: षोडश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


अर्जुन का श्रीकृष्ण से गीता का विषय पूछना और श्रीकृष्ण का अर्जुन से सिद्ध, महर्षि एवं काश्यप का संवाद सुनाना

जनमेजय ने पूछा! ब्रह्मन! शत्रुओं का नाश करके जब महत्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन सभा भवन में रहने लगे, उन दिनों उन दोनों में क्या-क्या बातचीत हुई?

वैशम्पायन जी ने कहा- राजन! श्रीकृष्ण के सहित अर्जुन जब केवल अपने राज्य पर पूरा अधिकार प्राप्त कर लिया, तब वे उस दिव्य सभाभावन में आनन्दपूर्वक रहने लगे। नरेश्वर! एक दिन वहाँ स्वजनों से घिरे हुए वे दोनों मित्र स्वेच्छा से घूमते-घामते सभामण्डल के एक ऐसे भाग में पहुँचे, जो स्वर्ग के समान सुन्दर था। पाण्डुनन्दन अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण के साथ रहकर बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने एक बार उस रमणीय सभा की ओर दृष्टि डालन भगवान श्रीकृष्ण से कहा- ‘महाबाहो! देवकीनन्दन! जब संग्राम का समय उपस्थित था, उस समय मुझे आपके माहात्म्य का ज्ञान और ईश्वरीय स्वरूप का दर्शन हुआ था। किंतु केशव! आपने सौहार्दवश पहले मुझे जो ज्ञान का उपदेश दिया था, मेरा वह सब ज्ञान इस समय विचलित-चित्त हो जाने के कारण नष्ट हो गया (भूल गया) है। माधव! उन विषयों को सुनने के लिये मेरे मन में बारंबार उत्कष्ठा होती है। इधर आप जल्दी ही द्वारका जाने वाले है, अत: पुन: वह सब विषय मुझे सुना दीजिये’।

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! अर्जुन के ऐसा कहने पर वक्ताओं में श्रेष्ठ महातेजस्वी भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें गले से लगाकर इस प्रकार उत्तर दिया। श्रीकृष्ण बोले- अर्जुन! उस समय मैने तुम्हें अत्यन्त गोपनीय ज्ञान का श्रवण कराया था, अपने स्वरूपभूत धर्म-सनातन पुरुषोत्तम तत्त्व का परिचय दिया था और[1] सम्पूर्ण नित्य लोकों का वर्णन किया था, किंतु तुमने जो अपनी नासमझी के कारण उस उपदेश को याद नहीं रखा, यह मुझे बहुत अप्रिय है। उन बातों का अब पूरा-पूरा स्मरण होना सम्भव नहीं जान पड़ता है। पाण्डुनन्दन! निश्चय ही तुम बड़े श्रद्धाहीन हो, तुम्हारी बुद्धि बहुत मन्द जान पड़ती है। धनंजय! अब मैं उस उपदेश को ज्यों-का त्यों नहीं कह सकता है। क्योंकि वह धर्म ब्रह्मपद की प्राप्ति कराने के लिये पर्याप्त था, वह सारा-का-सारा धर्म उसी रूप में फिर दुहरा देना अब मेरे वश की बात भी नहीं है। उस समय योगमुक्त होकर मैने परमात्मतत्त्व का वर्णन किया था। अब उस विषय का ज्ञान कराने के लिये मैं एक प्राचीन इतिहास का वर्णन करता हूँ। जिससे तुम उस समत्वबुद्धि का आश्रय लेकर उत्तम गति प्राप्त कर लोगे। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ अर्जुन! अब तुम मेरी सारी बातें ध्यान देकर सुनो।

शत्रुदमन! एक दिन की बात है, एक दुर्धर्ष ब्राह्मण ब्रह्मलोक से उतरकर स्वर्गलोक में होते हुए मेरे यहाँ आये। मैंने उनकी विधिवत पूजा की ओर मोझ धर्म के विषय में प्रश्न किया। भारत श्रेष्ठ है! मेरे प्रश्न का उन्होंने सुन्दर विधि से उत्तर दिया। पार्थ! वही मैं तुम्हें बतला रहा हूँ। कोई अन्यथा विचार न करके इसे ध्यान देकर सुनो। ब्राह्मण ने कहा- श्रीकृष्ण! मधुसूदन! तुमने सब प्राणियों पर कृपा करके उनके मोह का नाश करने के लिये जो यह मोक्ष-धर्म से संबंध रखने वाला प्रश्न किया है, उसका मैं यथावत उत्तर दे रहा हूँ। प्रभो! माधव! सावधान होकर मेरी बात श्रवण करो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शुक्ल-कृष्ण गीति का निरूपण करते हुए

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