सप्तत्रिंशदधिकशततम (137) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
कुन्तीनन्दन! कहते हैं, एक तालाब में जो अधिक गहरा नहीं था, बहुत–सी मछलियां रहती थी, उसी जलाशय में तीन कार्यकुशल मत्स्य भी रहते थे, जो सदा साथ–साथ विचरने वाले और एक–दूसरे के सुहृद थे। वहाँ उन तीनों सहचारियों में से एक तो (अनागतविधाता)था, जो आने वाले दीर्धकाल तक की बात सोच लेता था। दूसरा प्रत्युत्पन्नमति था, जिसकी प्रतिभा ठीक समय पर ही काम दे देती थी और तीसरा दीर्धसूत्री था (जो प्रत्येक कार्य में अनावश्यक विलम्ब करता था)। एक दिन कुछ मछलीमारों ने उस जलाशय में चारों ओर से नालियां बनाकर अनेक द्वारों से उसका पानी आसपास की नीची भूमि में निकालना आरम्भ कर दिया। जलाशय का पानी घटता देख भय आने की सम्भावना समझकर दूर तक की बातें सोचने वाले उस मत्स्य ने अपने उन दोनों सुहृद से कहा-‘बन्धुओं! जान पड़ता है कि इस जलाशय में रहने वाले सभी मत्स्यों पर संकट आ पहुँचा है; इसलिये जब तक हमारे निकलने का मार्ग दूषित न हो जाय, तब तक शीघ्र ही हमें यहाँ से अन्यत्र चले जाना चाहिये। ‘जो आने वाले संकटों को उसके आने से पहले ही अपनी अच्छी नीति द्वारा मिटा देता है, वह कभी प्राण जाने के संशय में नहीं पड़ता। यदि आप लोगों को मेरी बात ठीक जान पड़े तो चलिये, दूसरे जलाशय को चलें’। इस पर वहाँ जो दीर्घसूत्री था, उसने कहा–‘मित्र! तुम बात तो ठीक कहते हो; परन्तु मेरा यह दृढ विचार है कि अभी हमें जल्दी नहीं करनी चाहिये’। तदन्तर प्रत्युत्पन्नमति ने दूरदर्शी से कहा–‘मित्र! जब समय आ जाता है, तब मेरी बुद्धि न्यायत: कोई युक्ति ढूंढ़ निकालने में कभी नही चूकती है‘। यह सुनकर परम बुद्धिमान दीर्घदर्शी (अनागत–विधाता) वहाँ से निकलकर एक नाली के रास्ते से दूसरे गहरे जलाशय में चला गया। तदनन्तर मछलियों से ही जीविका चलाने वाले मछलीमारों ने जब यह देखा कि जलाशय का जल प्राय: बाहर निकल चुका है , तब उन्होंने अनेक उपायों द्वारा वहाँ की सब मछलियों को फंसा लिया। जिसका पानी बाहर निकल चुका था, वह जलाशय जब मथा जाने लगा, तब दीर्घसूत्री भी दूसरे मत्स्यों के साथ जाल में फंस गया। जब मछलीमार रस्सी खींचकर मछलियों से भरे उस जाल को उठाने लगे, तब प्रत्युत्पन्नमति मत्स्य भी उन्हीं मत्स्यों के भीतर घुसकर जाल में बॅध–सा गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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