महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 36 श्लोक 1-2

षट्त्रिंश (36) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

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महाभारत: भीष्म पर्व: षट्त्रिंश अध्याय: श्लोक 1-2 का हिन्दी अनुवाद

साकार और निराकार के उपायकों की उत्‍तमता का निर्णय तथा भगवत्‍प्राप्ति के उपाय का एवं भगवत्‍प्राप्ति वाले पुरुषों के लक्षणों का वर्णन

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 12


संबंध- गीता के दूसरे अध्‍याय से लेकर छठे अध्‍याय तक भगवान ने जगह-जगह निर्गुण ब्रह्म की और सगुण परमेश्वर की उपासना की प्रशंसा की है। सातवें अध्‍याय से ग्‍यारहवें अध्‍याय तक तो विशेष रूप से सगुण भगवान की उपासना का महत्त्व दिखलाया है। इसी के साथ पांचवे अध्‍याय में सत्रहवें से छब्‍बीसवें श्लोक तक, छठे अध्‍याय में चौबीसवें से उन्‍तीसवें तक, आठवें अध्‍याय में ग्‍यारहवें से तेरहवें तक तथा इसके सिवा और भी कितनी ही जगह निर्गुण की उपासना का महत्त्व भी दिखलाया है। आखिर ग्‍याहरवें अध्‍याय के अंत में सगुण-साकार भगवान की अनन्‍य भक्ति का फल भगवत्‍प्राप्ति बतलाकर ‘मत्‍कर्मकृत्’ से आरम्‍भ होने वाले इस अंतिम श्लोक में सगुण-साकार-स्‍वरूप भगवान के भक्त की विशेष-रूप से बड़ाई की। इस पर अर्जुन के मन में यह जिज्ञासा हुई कि निर्गुण-निराकर ब्रह्म की और सगुण-साकार भगवान की उपासना करने वाले दोनों प्रकार के उपासकों में उत्तम उपासक कौन हैं-

अर्जुन बोले- जो अनन्‍य प्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकार से निरंतर आपके भजन-ध्‍यान में लगे रहकर आप सगुणरूप परमेश्वर को और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानंदघन निराकर ब्रह्म को ही अतिश्रेष्‍ठ भाव से भजते हैं, उन दोनों प्रकार के उपासकों में अति उत्तम योगवेत्‍ता कौन हैं? श्रीभगवान बोले- मुझमें मन को एकाग्र करके निरंतर मेरे भजन-ध्‍यान में लगे हुए जो भक्तजन अतिशय श्रेष्‍ठ श्रद्धा से युक्‍त, होकर मुझ सगुणरूप परमेश्वर को भजते हैं,[1] वे मुझको योगियों में अति उत्‍तम योगी मान्‍य हैं। संबंध- पूर्वश्लोक में सगुण-साकार परमेश्वर के उपासकों को उत्‍तम योगवेता बतलाया, इस पर यह जिज्ञासा हो सकती है कि तो क्‍या निर्गुण-निराकर ब्रह्म के उपासक उत्‍तम योगवेत्ता नहीं है; इस पर कहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गोपियों की भाँति समस्‍त कर्म करते समय परम प्रेमास्‍पद, सर्वशक्तिमान, सर्वान्‍तर्यामी, सम्‍पूर्ण गुणों के समुद्र भगवान में मन को तन्‍मय करके उनके गुण, प्रभाव और स्‍वरूप का सदा-सर्वदा प्रेमपूर्वक चिंतन करते रहना ही मन को एकाग्र करके निरंतर उनके ध्‍यान में स्थित रहते हुए उनको भजना है। श्रीमद्भागवत में बतलाया है-

    या दोहनेअवहनने मथनोपलेप-प्रेङ्खेङ्खनार्भरूदितो-क्षणमार्जनादौ।
    गायन्ति चैनमनुरक्‍तधियो-अश्रुकण्‍ठचो धन्‍या व्रजस्त्रिय उरूक्रमचित्‍याना:।। ( 10।44।15)

    ‘जो गौओं का दूध दुहते समय, धान आदि कूटते समय, दही बिलोते समय, आंगन लीपते समय, बालकों को पालने में झुलाते समय, रोते हुए बच्‍चों को लोरी देते समय, घरों में जल छिड़कते समय और झाड़ू देने आदि कर्मों को करते समय प्रेमपूर्वक चित्त से आंखों में आंसू भरकर गद्गद वाणी से श्रीकृष्‍ण का गान किया करती हैं- इस प्रकार सदा श्रीकृष्‍ण में ही चित्त लगाये रखने वाली ये व्रजवासिनी गोपियां धन्‍य हैं।‘

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