त्रिचत्वारिंशदधिकशततम (143) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
महाभारत: वन पर्व: त्रिचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर सम्पूर्ण धनुर्धरों में अग्रगण्य वे अमित तेजस्वी शूरवीर पाण्डव धनुष, बाण, तरकश, ढाल और तलवार लिये, हाथ में गोह के चमड़े के बने दस्ताने पहने और श्रेष्ठ ब्राह्मणों को आगे किये द्रौपदी के साथ गन्धमादन पर्वत की ओर प्रस्थित हुए। पर्वत के शिखर पर उन्होंने बहुत-से सरोवर, सरिताएं, पर्वत, वन तथा घनी छाया वाले वृक्ष देखे। उन्हें कितने ही ऐसे स्थान दृष्टिगोचर हुए, जहाँ सदा फल और फूलों की बहुतायत रहती थी। उन प्रदेशों में देवर्षियों के समुदाय निवास करते थे। वीर पाण्डव अपने मन को परमात्मा के चिन्तन में लगाकर फल-मूल का आहार करते हुए ऊँचे-नीचे विषम संकटपूर्ण स्थानों में विचर रहे थे। मार्ग में उन्हें नाना प्रकार के मृगसमूह दिखायी देते थे, जिनकी संख्या बहुत थी। इस प्रकार उन महात्मा पाण्डवों ने गन्धर्वों और अप्सराओं की प्रिय भूमि, किन्नरों की क्रीड़ास्थली तथा ऋषियों, सिद्धों और देवताओं के निवास स्थान गन्धमादन पर्वत की चोटी में प्रवेश किया। राजन! वीर पाण्डवों के गन्धमादन पर्वत पर पदार्पण करते ही प्रचण्ड आंधी के साथ बड़े जोर की वर्षा होने लगी। फिर धूल और पत्तों से भरा हुआ बड़ा भारी बवंडर (आंधी) उठा, जिसने पृथ्वी, अन्तरिक्ष तथा स्वर्गलोक को भी सहसा आच्छादित कर दिया। धूल से आकाश के ढक जाने से कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था; इसीलिये वे एक-दूसरे से बातचीत भी नहीं कर पाते थे; अन्धकार ने आंखों पर पर्दा डाल दिया था, जिससे पाण्डव लोग एक-दूसरे के दर्शन से भी वंचित हो गये थे। भारत! पत्थरों का चूर्ण बिखेरती हुई वायु उन्हें कहीं से कहीं खींच लिये जाती थी। प्रचण्ड वायु के वेग से टूटकर धरती पर गिरने वाले वृक्षों तथा अन्य झाड़ों का भयंकर शब्द सुनायी पड़ता था। हवा के झोंके से मोहित होकर वे सब के सब मन ही मन सोचने लगे कि आकाश तो नहीं फट पड़ा है। पृथ्वी तो नहीं विदीर्ण हो रही है अथवा कोई पर्वत तो नहीं फटा जा रहा है। तत्पश्चात वे रास्ते के आसपास के वृक्षों, मिट्टी के ढेरों और ऊँचे-नीचे स्थानों को हाथों से टटोलते हुए हवा से डरकर यत्र-तत्र छिपने लगे। उस समय महाबली भीमसेन हाथ में धनुष लिये द्रौपदी को अपने साथ रखकर एक वृक्ष के सहारे खड़े हो गये। धर्मराज युधिष्ठिर और पुरोहित धौम्य अग्निहोत्र की सामग्री लिये उस महान वन में कहीं जा छिपे। सहदेव पर्वत पर ही (कहीं सुरक्षित स्थान में) छिप गये। नकुल, अन्यान्य ब्राह्मण लोग तथा महातपस्वी लोमश जी भी भयभीत होकर जहाँ-तहाँ वृक्षों की आड़ लेकर छिपे रहे। थोड़ी देर में जब वायु का वेग कुछ कम हुआ और धूल उड़नी बन्द हो गयी, उस समय बड़ी भारी जलधारा बरसने लगी। तदनन्तर वज्रपात के समान मेघों की गड़गड़ाहट होने लगी और मेघमालाओं में चारों ओर चंचल चमक वाली बिजलियाँ संचरण करने लगीं। महाराज वहाँ चारों ओर बिखरी हुई जलराशि समुद्रगामिनी नदियों के रूप में प्रकट हो गयी, जो मिट्टी मिल जाने से मलिन दीख पड़ती थी। उसमें झाग उठ रहे थे। फेनरूपी नौका से व्याप्त अगाध जलसमूह को बहाती हुई सरिताएं टूटकर गिरे हुए वृक्षों को अपनी लहरों मे समेटकर जोर-जोर से ‘हर हर’ ध्वनी करती हुई बह रही थी। भारत! थोड़ी देर बाद जब तूफान का कोलाहल शान्त हुआ, वायु का वेग कम एवं सम हो गया, पर्वत का सारा जल बहकर नीचे चला गया और बादलों का आवरण दूर हो जाने से सूर्यदेव प्रकाशित हो उठे। उस समय वे समस्त वीर पाण्डव धीरे-धीरे अपने स्थान से निकले और गन्धमादन पर्वत की ओर प्रस्थित हो गये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रापर्व में लोमशतीर्थयात्रा के प्रसंग में गन्धमान प्रवेश विषयक एक सौ तैतालिसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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