द्विनवत्यधिकद्विशततम (292) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: द्विनवत्यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
पराशरगीता-धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, अतिथि-सत्कार का महत्त्व, पाँच प्रकार के ऋणों से छूटने की विधि, भगवत्स्तवन की महिमा एवं सदाचार तथा गुरुजनों की सेवा से महान लाभ पराशर जी कहते हैं- राजन! कौन किसका उपकार करता है और कौन किसको देता है? यह प्राणी सारा कार्य स्वयं अपने ही लिये करता है। अपना सगा भाई भी यदि अपने श्रेष्ठ स्वभाव का और स्नेह का त्याग कर दे तो लोग उसको त्याग देते हैं; फिर दूसरे किसी साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या है। श्रेष्ठ पुरुष को दिया हुआ दान और श्रेष्ठ पुरुष से प्राप्त हुआ प्रतिग्रह-इन दोनों का महत्त्व बराबर है तो भी इन दोनों में से ब्राह्मण के लिये प्रतिग्रह स्वीकार करने की अपेक्षा दान देना अधिक पुण्यमय माना गया है। जो धन न्याय से प्राप्त किया गया हो और न्याय से ही बढ़ाया गया हो, उसको यत्नपूर्वक धर्म के उद्देश्य से बचाये रखना चाहिये। यही धर्मशास्त्र का निश्चय है। धर्म चाहने वाले पुरुष को क्रूरकर्म के द्वारा धन का उपार्जन नहीं करना चाहिये। अपनी शक्ति के अनुसार समस्त शुभ कर्म करे। धन बढ़ाने की चिन्ता में न पड़े। जो मौसम का विचार करके अपनी शक्ति के अनुसार प्यासे और भूखे अतिथि को ठंडा या गरम किया हुआ जल और अन्न पवित्रभाव से अर्पण करता है, वह उत्तम फल पाता है। महात्मा राजा रन्तिदेव ने फल-मूल और पत्तों से ऋषि-मुनियों का पूजन किया था। इसी से उन्हें वह सिद्धि प्राप्त हुई, जिसकी सब लोग अभिलाषा रखते हैं। पृथ्वी पालक महाराज शैब्य ने भी उन फल और पत्रों से ही माठर मुनि को संतुष्ट किया था, जिससे उन्हें उत्तम लोक की प्राप्ति हुई। प्रत्येक मनुष्य देवता, अतिथि, भरण-पोषण के योग्य कुटुम्बीजन, पितर तथा अपने-आपका भी ऋणी होकर जन्म लेता है; अत: उसे उस ऋण से मुक्त होने का यत्न करना चाहिये। वेद्-शास्त्रों का स्वाध्याय करके ऋषियों के, यज्ञ कर्म द्वारा देवताओं के, श्राद्ध और दान से पितरों के तथा स्वागत-सत्कार, सेवा आदि से अतिथियों के ऋण से छुटकारा होता है। इसी प्रकार वेद-वाणी के पठन, श्रवण एवं मनन से, यज्ञ शेष अन्न के भोजन से तथा जीवों की रक्षा करने से मनुष्य अपने ऋण से मुक्त होता है। भरणीय कुटुम्बीजन के पालन-पोषण का आरम्भ से ही प्रबन्ध करना चाहिये। इससे उनके ऋण से भी मुक्ति हो जाती है। ऋषि-मुनियों के पास धन नहीं था तो भी वे अपने प्रयत्न से ही सिद्ध हो गये। उन्होंने विधिपूर्वक अग्निहोत्र करके सिद्धि प्राप्त की थी। महाबाहो! ॠचीक के पुत्र यज्ञ में भाग लेने वाले देवताओं की वेदमन्त्रों द्वारा स्तुति करके विश्वामित्र के पुत्र हो गये। महर्षि उशना देवाधिदेव महादेव जी को प्रसन्न करके उनके शुक्रत्व को प्राप्त हो उसी नाम से प्रसिद्ध हुए। साथ ही पार्वती देवी की स्तुति करके वे यशस्वी मुनि आकाश में ग्रहरूप से स्थित हो आनन्द भोग रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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