महाभारत वन पर्व अध्याय 41 श्लोक 22-49

एकचत्‍वारिंश (41) अध्‍याय: वन पर्व (कैरात पर्व)

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महाभारत: वन पर्व: एकचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 22-49 का हिन्दी अनुवाद


‘शत्रुओं का संहार करने वाले कुन्तीकुमार! देवताओं, दानवों तथा राक्षसों के जो अंश पृथ्वी पर उत्पन्न हुए हैं, वे युद्ध में तुम्हारे द्वारा मारे जाकर अपने कर्मफल के अनुसार यथोचित गति प्राप्त करेंगे। फाल्गुन! संसार में तुम्हारी अक्षय कीर्ति स्थापित होगी। तुमने यहाँ महासमर में साक्षात् महादेव जी को संतुष्ट किया। महाबाहो! भगवान् श्रीकृष्ण के साथ मिलकर तुम्हें इस पृथ्वी का भार भी हल्का करना है, अतः यह मेरा दण्डास्त्र ग्रहण करो। इसका वेग कहीं भी कुण्ठित नहीं होता। इसी अस्त्र के द्वारा तुम बड़े-बड़े़ कार्य सिद्ध करोगे।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कुरुनन्दन कुन्तीकुमार अर्जुन ने विधिपूर्वक मन्त्र, उपचार, प्रयोग और उपसंहार सहित उन अस्त्र को ग्रहण किया। इसके बाद जलजन्तुओं के स्वामी मेघ के समान श्याम कांति वाले प्रभावशाली वरुण पश्चिम दिशाओं में खडे़ हो इस प्रकार बोले- ‘पार्थ! तुम क्षत्रियों मे प्रधान एवं क्षत्रिय धर्म में स्थित हो। विशाल तथा लाल नेत्रों वाले अर्जुन! मेरी ओर देखो। में जल का स्वामी वरुण हूँ। कुन्तीकुमार! मेरे दिये हुए इन वरुण-पाशों को रहस्य और उपसंहार सहित ग्रहण करो। इनके वेग को कोई भी रोक नहीं सकता। वीर! मैंने इन पाशों द्वारा तारकामय संग्राम में सहस्रों महाकाय दैत्यों को बांध लिया था। अतः महाबली पार्थ! मेरे कृपाप्रसाद से प्रकट हुए इन पाशों को तुम ग्रहण करो। इनके द्वारा आक्रमण करने पर मृत्यु भी तुम्हारे हाथ से नहीं छूट सकती। इन अस्त्र के द्वारा जब तुम संग्राम में विचरण करोगे, उस समय यह सारी वसुन्धरा क्षत्रियों से शून्य हो जायेगी, इसमें संशय नहीं है’।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! वरुण और यम के दिव्यास्त्र प्रदान कर चुकने के बाद कैलासनिवासी धनाध्यक्ष कुबेर ने कहा- ‘महाबली बुद्धिमान् पाण्डुनन्दन! मैं भी तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम अपराजित वीर हो। तुमसे मिलकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। सव्यसाचिन्! महाबाहो! पुरातन देव! सनातनपुरुष! पूर्वकल्पों में मेरे साथ तुमने सदा तप के द्वारा परिश्रम उठाया है। नरश्रेष्ठ! आज तम्हें देखकर यह दिव्यास्त्र प्रदान करता हूँ। महाबाहो! इसके द्वारा तुम दुर्जय मानवेतर प्राणियों को भी जीत लोगे। तुम मुझसे शीघ्र ही इस अत्युत्तम अस्त्र को ग्रहण कर लो। तुम इसके द्वारा दुर्योधन की सारी सेनाओं को जलाकर भस्म कर डालोगे। यह मेरा परम प्रिय अन्तर्धान नामक अस्त्र है। इसे ग्रहण करो। यह ओज, तेज और कांति प्रदान करने वाला, शत्रुओं को सुला देने वाला और समस्त वैरियों का विनाश करने वाला है। परमात्मा शंकर ने जब त्रिपुरासुर के तीनों नगरों का विनाश किया था, उस समय इस अस्त्र का उनके द्वारा प्रयोग किया गया था; जिससे बड़े-बड़े असुर दग्ध हो गये। सत्यपराक्रमी और मेरु के समान गौरवशाली पार्थ! तुम्हारे लिये यह अस्त्र मैंने उपस्थित किया है। तुम इसे धारण करने के योग्य हो’। तब कुरुकुलनन्दन आनंद बढ़ाने वाले महाबाहु महाबली अर्जुन ने कुबेर के उस ‘अन्तर्धान’ नामक दिव्य अस्त्र को ग्रहण किया।

तदनन्तर देवराज इन्द्र ने अनायास ही महान कर्म करने वाले कुंतीकुमार अर्जुन को मीठे वचनों द्वारा सांत्वना देते हुए मेघ और दुन्दुभि के समान गम्भीर स्वर से कहा- ‘महाबाहु कुन्तीकुमार! तुम पुरातन शासक हो। तुम्हें उत्तम स्थिति प्राप्त हुई है। तुम साक्षात् देवगति को प्राप्त हुए हो। शत्रुदमन! तुम्हें देवताओं का बड़ा भारी कार्य सिद्ध करना है। महाद्युते! तैयार हो जाओ। तुम्हें स्वर्गलोक में चलना है। मातलि के द्वारा जोता हुआ दिव्य रथ तुम्हें लेने के लिये पृथ्वी पर आने वाला है। कुरुनन्दन! वहीं (स्वर्ग में) मैं तुम्हें दिव्यास्त्र प्रदान करूंगा।' उस पर्वत शिखर पर एकत्र हुए उन सभी लोकपालों का दर्शन करके परम बुद्धिमान् धनंजय को बड़ा विस्मय हुआ। तत्पश्चात् महातेजस्वी अर्जुन ने वहाँ वहाँ पधारे हुए लोकपालों का मीठे वचन, जल और फलों के द्वारा भी विधिपूर्वक पूजन किया। इसके बाद इच्छानुसार मन के समान वेग वाले समस्त देवता अर्जुन के प्रति सम्मान प्रकट करके जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। तदनन्तर देवताओं के दिव्यास्त्र प्राप्त करके पुरुषोत्तम अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई; उन्होंने अपने-आपको कृतार्थ एवं पूर्णमनोरथ माना।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत कैरावपर्व में देवप्रस्थान विषयक इकतालीसवां अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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