श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
गीता का सार
अध्याय-2 : श्लोक-51
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
इस तरह भगवद्भक्ति में लगे रहकर बड़े-बड़े ऋषि, मुनि अथवा भक्तगण अपने आपको इस भौतिक संसार में कर्म के फलों से मुक्त कर लेते हैं। इस प्रकार वे जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट जाते हैं और भगवान् के पास जाकर उस अवस्था को प्राप्त करते हैं, जो समस्त दुखों से परे है।
मुक्त जीवों का सम्बन्ध उस स्थान से होता है जहाँ भौतिक कष्ट नहीं होते। भागवत में [2] कहा गया है– समाश्रिता से पदपल्लवप्लवं महत्पदं पुण्ययशो मुरारेः। “जिसने उन भगवान् के चरणकमल रूपी नाव को ग्रहण कर लिया है, जो दृश्य जगत् के आश्रय हैं और मुकुंद नाम से विख्यात हैं अर्थात् मुक्ति के दाता हैं, उसके लिए यह भवसागर गोखुर में समाये जल के समान है। उसका लक्ष्य परम पदम् है अर्थात् वह स्थान जहाँ भौतिक कष्ट नहीं है या कि वैकुण्ठ है; वह स्थान नहीं जहाँ पद-पद पर संकट हो।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कर्म-जम् – सकाम कर्मों के कारण; बुद्धि-युक्ताः – भक्ति में लगे; हि – निश्चय ही; फलम् – फल; त्यक्त्वा – त्याग कर; मनीषिणः – बड़े-बड़े ऋषि मुनि या भक्तगण; जन्म-बन्ध – जन्म तथा मृत्यु के बन्धन से; विनिर्मुक्ताः – मुक्त; पदम् – पद पर; गच्छन्ति – पहुँचते हैं; अनामयम् – बिना कष्ट के।
- ↑ 10.14.58
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