श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 705

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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श्रद्धा के विभाग
अध्याय 17 : श्लोक-7


आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रिय: ।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु ॥7॥[1]

भावार्थ

यहाँ तक कि प्रत्येक व्यक्ति जो भोजन पसन्द करता है, वह भी प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन प्रकार का होता है। यही बात यज्ञ, तपस्या तथा दान के लिए भी सत्य है। अब उनके भेदों के विषय में सुनो।

तात्पर्य

प्रकृति के भिन्न-भिन्न गुणों के अनुसार भोजन, यज्ञ, तपस्या और दान में भेद होते हैं। वे सब एक से नहीं होते। जो लोग यह समझ सकते हैं कि किस गुण में क्या-क्या करना चाहिए, वे वास्तव में बुद्धिमान हैं। जो लोग सभी प्रकार के यज्ञ, भोजन या दान को एकसा मान कर उनमें अन्तर नहीं कर पाते, वे अज्ञानी हैं। ऐसे भी प्रचारक लोग हैं, जो यह कहते हैं कि मनुष्य जो चाहे वह कर सकता है और सिद्धि प्राप्त कर सकता है। लेकिन ये मूर्ख मार्गदर्शक शास्त्रों के आदेशानुसार कार्य नहीं करते। ये अपनी विधियाँ बनाते हैं और सामान्य जनता को भ्रान्त करते रहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आहारः= भोजन; तु= निश्चय ही; अपि= भी; सर्वस्य= हर एक का; त्र-विधिः= तीन प्रकार का; भवति= होता है; प्रियः= प्यारा; यज्ञः= यज्ञ; तपः= तपस्या; तथा= और; दानम्= दान; तेषाम्= उनका; भेदम्= अन्तर; इमम्= यह; शृणु= सुनो।

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