श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 554

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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प्रकृति, पुरुष तथा चेतना
अध्याय 13 : श्लोक-1-2


अर्जुन उवाच
प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च ।
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेय च केशव ।।1।।

श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहु: क्षेत्रज्ञ इति तद्विद: ॥2॥[1]

भावार्थ
अर्जुन ने कहा- हे कृष्ण! मैं प्रकृति एवं पुरुष (भोक्ता), क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ तथा ज्ञान एंव ज्ञेय के विषय में जानने का इच्छुक हूँ।


श्री भगवान के कहा- हे कुन्तीपुत्र! यह शरीर क्षेत्र कहलाता है और इस क्षेत्र को जानने वाला क्षेत्रज्ञ है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अर्जुनः उवाच= अर्जुन ने कहा; प्रकृतिम्= प्रकृति; पुरुषम्=भोक्ता; च=भी; एव=निश्चय ही; क्षेत्रम्=क्षेत्र, खेत; क्षेत्र-ज्ञम्=खेत को जानने वाला; एव= निश्चय ही; च=भी; एतत्= यह सारा; वेदितुम्=जानने के लिए; इच्छामि=इच्छुक हूँ; ज्ञानम्=ज्ञान; ज्ञेयम्=ज्ञान का लक्ष्य; च= भी; केशव= हे कृष्णः श्रीभगवान् उवाच= भगवान् ने कहा; इदम्=यह; शरीरम्=शरीर; कौन्तेय= हे कुन्तीपुत्र; क्षेत्रम्=खेत; इति= इस प्रकार; अभिधीयते= कहलाता है; एतत्= यह; यः=जो; वेत्ति=जानता है; तम्= उसको; प्राहुः= कहा जाता है; क्षेत्र=ज्ञः= खेत को जानने वाला; इति= इस प्रकार; तत्=विदः= इसे जानने वालों के द्वारा।

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