श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 221

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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दिव्य ज्ञान
अध्याय 4 : श्लोक-35

यज्ज्ञात्वा न पुनार्मोह मेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषाणि द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥[1]

भावार्थ

स्वरूपसिद्ध व्यक्ति से वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर चुकने पर तुम पुनः कभी ऐसे मोह को प्राप्त नहीं होगे क्योंकि इस ज्ञान के द्वारा तुम देख सकोगे कि सभी जीव परमात्मा के अंशस्वरूप हैं, अर्थात वे सब मेरे हैं।

तात्पर्य

स्वरूपसिद्ध व्यक्ति से ज्ञान प्राप्त होने का परिणाम यः होता है कि यह पता चल जाता है कि सारे जीव भगवान श्रीकृष्ण के भिन्न अंश हैं। कृष्ण से पृथक अस्तित्व का भाव माया (मा – नहीं, या – यह) कहलाती है। कुछ लोग सोचते हैं कि हमें कृष्ण से क्या लेना देना है वे तो केवल महान ऐतिहासिक पुरुष हैं और परब्रह्म तो निराकार है। वस्तुतः जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है, यह निराकार ब्रह्म कृष्ण का व्यक्तिगत तेज है। कृष्ण भगवान के रूप में प्रत्येक वस्तु के कारण हैं। ब्रह्मसंहिता में स्पष्ट कहा गया है कि कृष्ण श्रीभगवान हैं और सभी कारणों के कारण हैं। यहाँ तक कि लाखों अवतार उनके विभिन्न विस्तार ही हैं। इसी प्रकार सारे जीव भी कृष्ण का अंश हैं। मायावादियों की यह मिथ्या धारणा है कि कृष्ण अपने अनेक अंशों में अपनी निजी पृथक अस्तित्व को मिटा देते हैं। यह विचार सर्वथा भौतिक है। भौतिक जगत में हमारा अनुभव है कि यदि किसी वस्तु का विखण्डन किया जाय तो उसका मूलस्वरूप नष्ट हो जाता है। किन्तु मायावादी यह नहीं समझ पाते कि परम का अर्थ है कि एक और एक मिलकर एक ही होता है और एक में से एक घटाने पर भी एक बचता है। परब्रह्म का यही स्वरूप है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यत् – जिसे; ज्ञात्वा – जानकर; न – कभी नहीं; पुनः – फिर; मोहम् – मोह को; एवम् – इस प्रकार; यास्यसि – प्राप्त होंगे; पाण्डव – हे पाण्डवपुत्र; येन – जिससे; भूतानि – जीवों को; अशेषेण – समस्त; द्रक्ष्यसि – देखोगे; आत्मनि – परमात्मा में; अथ उ – अथवा अन्य शब्दों में; मयि – मुझमें।

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