श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 445

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

Prev.png

श्री भगवान का ऐश्वर्य
अध्याय-10 : श्लोक-14


सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः।।[1]


भावार्थ

हे कृष्ण ! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूँ। हे प्रभु ! न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं।

तात्पर्य

यहाँ पर अर्जुन इसकी पुष्टि करता है कि श्रद्धाहीन तथा आसुरी प्रकृति वाले लोग कृष्ण को नहीं समझ सकते। जब देवतागण तक उन्हें नहीं समझ पाते तो आधुनिक जगत के तथाकथित विद्वानों का क्या कहना? भगवत्कृपा से अर्जुन समझ गया कि परमसत्य कृष्ण हैं और एव सम्पूर्ण हैं। अतः हमें अर्जुन के पथ का अनुसरण करना चाहिए। उसे भगवद्गीता का प्रमाण प्राप्त था। जैसा कि भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय में कहा गया है, भगवद्गीता के समझने की गुरु-परम्परा का ह्रास हो चुका था, अतः कृष्ण ने अर्जुन से उसकी पुनःस्थापना की, क्योंकि वे अर्जुन को अपना परम प्रिय सखा तथा भक्त समझते थे। अतः जैसा कि गीतोपनिषद की भूमिका में हमने कहा है, भगवद्गीता का ज्ञान परम्परा-विधि से प्राप्त करना चाहिए। परम्परा-विधि के लुप्त होने पर उसके सूत्रपात के लिए अर्जुन को चुना गया। हमें चाहिए कि अर्जुन का हम अनुसरण करें, जिसने कृष्ण की सारी बातें जान लीं। तभी हम भगवद्गीता के सार को समझ सकेंगे और तभी कृष्ण को भगवान रूप में जान सकेंगे।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सर्वम्-सब; एतत्-इस; ऋतम्-सत्य को; मन्ये-स्वीकार करता हूँ; यत्-जो; माम्-मुझको; वदसि-कहते हो; केशव-हे कृष्ण; न-कभी नहीं; हि-निश्चय ही; ते-आपके; भगवान-हे भगवान्; व्यक्तिम्-स्वरूप को; विदुः-जान सकते हैं; देवाः-देवतागण; न-न तो; दानवाः-असुरगण।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः