श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 744

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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उपसंहार- संन्यास की सिद्धि
अध्याय 18 : श्लोक-15


शरीरवाङ्नोभिर्यत्कर्म प्रारभते नर: ।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतव: ॥15॥[1]

भावार्थ

मनुष्य अपने शरीर, मन या वाणी से जो भी उचित या अनुचित कर्म करता है, वह इन पाँच कारणों के फलस्वरूप होता है।

तात्पर्य

इस श्लोक में न्याय्य (उचित) तथा विपरीत (अनुचित) शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। सही कार्य शास्त्रों में निर्दिष्ट निर्देशों के अनुसार किया जाता है और अनुचित कार्य में शास्त्रीय आदेशों की अवहेलना की जाती है। किन्तु जो भी कर्म किया जाता है, उसकी पूर्णता के लिए इन पाँच कारणों की आवश्यकता पड़ती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शरीर= शरीर से; मनोभिः= तथा मन से; यत्= जो; कर्म= कर्म; प्रारभते= प्रारम्भ करता है; नरः= व्यक्ति; न्याय्यम्= उचित, न्यायपूर्ण; वा= अथवा; विपरीतम्= (न्याय) विरुद्ध; वा= अथवा; पञ्च= पाँच; एते= ये सब; तस्य= उसके; हेतवः= कारण।

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