श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
भक्तियोग
अध्याय 12 : श्लोक-6-7
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्परा:।
यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है कि भक्तजन अत्यन्त भाग्यशाली हैं कि भगवान उनका इस भवसागर से तुरंत की उद्धार कर देते हैं। शुद्ध भक्ति करने पर मनुष्य को इसकी अनुभूति होने लगती है कि ईश्वर महान हैं और जीवात्मा उनके अधीन है। उसका कर्तव्य है कि वह भगवान की सेवा और यदि वह ऐसा नहीं करता, तो उसे माया की सेवा करनी होगी। जैसा पहले कहा जा चुका है कि केवल भक्ति से परमेश्वर को जाना जा सकता है। अतएव मनुष्य को चाहिए कि वह पूर्ण रूप से भक्त बने। भगवान को प्राप्त करने के लिए वह अपने मन को कृष्ण में पूर्णतया एकाग्र करे। वह कृष्ण के लिए ही कर्म करे। चाहे वह जो भी कर्म करे लेकिन वह कर्म केवल कृष्ण के लिए होना चाहिए। भक्ति का यही आदर्श है। भक्त भगवान को प्रसन्न करने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहता। उसके जीवन का उद्देश्य कृष्ण को प्रसन्न करना होता है और कृष्ण को प्रसन्न करना होता है और कृष्ण की तुष्टि के लिए वह सब कुछ उत्सर्ग कर सकता है जिस प्रकार अर्जुन ने कुरुक्षेत्र के युध्ह में किया था। यह विधि अत्यन्त सरल है। मनुष्य अपने कार्य में लगा रह कर हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन कर सकता है। ऐसे दिव्य कीर्तन से भक्त भगवान के प्रति आकृष्ट हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ये=जो; तु=लेकिन; सर्वाणि=समस्त; कर्माणि=कर्मों को; मयि=मुझमें; संन्यस्य=त्याग कर; मत्-परा:=मुझमें आसक्त; अनन्येन= अनन्य; एव=निश्चय ही; योगेन=ऐसे भक्तियोग के अभ्यास से; माम्=मुझको; ध्यायन्त:=ध्यान करते हुए; उपासते=पूजा करते हैं; तेषाम्=उनका; अहम्=मैं; समुद्धर्मा=उद्धारक; मृत्यु;मृत्यु के; संसार=संसार रूपी; सागरात्=समुद्र से; भवामि=होता हूँ; न=नहीं; चिरात्=दीर्घकाल के वाद; पार्थ=हे पृथापुत्र; मयि=मुझ पर; आवेशित=स्थिर; चेतसाम्-मन वालों को।
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