श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
परम गुह्य ज्ञान
अध्याय-9 : श्लोक-31
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
वह तुरन्त धर्मात्मा बन जाता है और स्थायी शान्ति को प्राप्त होता है। हे कुन्ती पुत्र! निडर होकर घोषणा कर दो कि मेरे भक्त का कभी विनाश नहीं होता है।
इसका कोई दूसरा अर्थ नहीं लगाना चाहिए। सातवें अध्याय में भगवान कहते हैं कि जो दुष्कृती है, वह भगवद्भक्त नहीं हो सकता। जो भगवद्भक्त नहीं है, उसमें कोई भी योग्यता नहीं होती। तब प्रश्न यह उठता है कि संयोगवश या स्वेच्छा से निन्दनीय कर्मों में प्रवृत्त होने वाला व्यक्ति किस प्रकार भक्त हो सकता है? यह प्रश्न ठीक ही है। जैसा कि सातवें अध्याय में कहा गया है, जो दुष्टात्मा कभी भक्ति के पास नहीं फटकता, उसमें कोई सद्गुण नहीं होते। श्रीमद्भागवत में भी इसका उल्लेख है। सामान्यतया नौ प्रकार के भक्ति-कार्यों में युक्त रहने वाला भक्त अपने हृदय में बसाता है, फलतः उसके सारे पापपूर्ण कल्मष धुल जाते हैं। निरन्तर भगवान् का चिन्तन करने से वह स्वतः शुद्ध हो जाता है। वेदों के अनुसार ऐसा निधान है कि यदि कोई अपने उच्चपद से नीचे गिर जाता है तो अपनी शुद्धि के लिए उसे कुछ अनुष्ठान करने होते हैं। किन्तु यहाँ पर ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है, क्योंकि शुद्धि की क्रिया भगवान का निरन्तर स्मरण करते रहने से पहले ही भक्त के हृदय में चलति रहती है। अतः हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे–इस मन्त्र का अनवरत जप करना चाहिए। यह भक्त को आकस्मिक पतन से बचाएगा। इस प्रकार वह समस्त भौतिक कल्मषों से सदैव मुक्त रहेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ क्षिप्रम्–शीघ्र; भवति–बन जाता है; धर्म-आत्मा–धर्मपरायण; शश्वत-शान्तिम्–स्थायी शान्ति को; निगच्छति–प्राप्त करता है; कौन्तेय–हे कुन्तीपुत्र; प्रतिजानीहि–घोषित कर दो; न–कभी नहीं; मे–मेरा; भक्तः–भक्त; प्रणश्यति–नष्ट होता है।
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