श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
पुरुषोत्तम योग
अध्याय 15 : श्लोक-20
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
हे अनघ! यह वैदिक शास्त्रों का सर्वाधिक गुप्त अंश है, जिसे मैंने अब प्रकट किया है। जो कोई इसे समझता है, वह बुद्धिमान हो जाएगा और उसके प्रयास पूर्ण होंगे। भगवान ने यहाँ स्पष्ट किया है कि यही सारे शास्त्रों का सार है और भगवान ने इसे जिस रूप में कहा है उसे उसी रूप में समझा जाना चाहिए। इस तरह मनुष्य बुद्धिमान तथा दिव्य ज्ञान में पूर्ण हो जाएगा। दूसरे शब्दों में, भगवान के इस दर्शन को समझने तथा उनकी दिव्य सेवा में प्रवृत्त होने से प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति के गुणों के समस्त कल्मष से मुक्त हो सकता है। भक्ति आध्यात्मिक ज्ञान की एक विधि है। जहाँ भी भक्ति होती है, वहाँ भौतिक कल्पष नहीं रह सकता। भगवद्भक्ति तथा स्वयं भगवान एक हैं, क्योंकि दोनों आध्यात्मिक हैं। भक्ति परमेश्वर की अन्तरंगा शक्ति के भीतर होती है। भगवान सूर्य के समान हैं और अज्ञान अंधकार है। जहाँ सूर्य विद्यमान है, वहाँ अंधकार का प्रश्न ही नहीं उठता। अतएव जब भी प्रामाणिक गुरु के मार्गदर्शन के अन्तर्गत भक्ति की जाती है, तो अज्ञान का प्रश्न ही नहीं उठता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इति= इस प्रकार; गुह्य-तमम्= सर्वाधिक गुप्त; शास्त्रम्= शास्त्र; इदम्= यह; उक्तम्= प्रकट किया गया; मया= मेरे द्वारा; अनघ= हे पापरहित; एतत्= यह; बुदध्वा= समझ कर; बुद्धिमान्= बुद्धिमान; स्यात्= हो जाता है; कृत-कृत्यः= अपने प्रयत्नों में परम पूर्ण; च= तथा; भारत= हे भरतपुत्र।
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