श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद
परम गुह्य ज्ञान
अध्याय-9 : श्लोक-32
मांहिपार्थव्यपाश्रित्ययेऽपिस्यु: पापयोनयः।
हे पार्थ! जो लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे भले ही निम्नजन्मा स्त्री, वैश्य (व्यापारी) तथा शुद्र (श्रमिक) क्यों न हों, वे परमधाम को प्राप्त करते हैं।
यहाँ पर भगवान ने स्पष्ट कहा है कि भक्ति में उच्च तथा निम्न जाती के लोगों का भेद नहीं होता। भौतिक जीवन में ऐसा विभाजन होता है, किन्तु भगवान की दिव्य भक्ति में लगे व्यक्ति पर यह लागू नहीं होता। सभी परमधाम के अधिकारी हैं। श्रीमद्भागवत[2] में कथन है कि अधम योनी चाण्डाल भी शुद्ध भक्त के संसर्ग से शुद्ध हो जाते हैं। अतः भक्ति तथा शुद्ध भक्त द्वारा पथ प्रदर्शन इतने प्रबल हैं कि वहाँ ऊँच नीच का भेद नहीं रह जाता और कोई भी इसे ग्रहण कर सकता है। शुद्ध भक्त की शरण ग्रहण करके सामान्य से सामान्य व्यक्ति शुद्ध हो सकता है। प्रकृति के विभिन्न गुणों के अनुसार मनुष्यों को सात्त्विक (ब्राह्मण), रजोगुणी (क्षत्रिय) तथा तामसी (वैश्य तथा शुद्र) कहा जाता है। इनसे भी निम्न पुरुष चाण्डाल कहलाते हैं और वे पापी कुलों में जन्म लेते हैं। सामान्य रूप से उच्चकुल वाले इन निम्नकुल में जन्म लेने वालों की संगति नहीं करते। किन्तु भक्तियोग इतना प्रबल होता है कि भगवद्भक्त समस्त निम्नकुल वाले व्यक्तियों को जीवन की परम सिद्धि प्राप्त करा सकते हैं। यह तभी सम्भव है जब कोई कृष्ण की शरण में जाये। जैसा कि व्यपाश्रित्य शब्द से सूचित है, मनुष्य को पूर्णतया कृष्ण की शरण ग्रहण करनी चाहिए। तब वह बड़े से बड़े ज्ञानी तथा योगी से भी महान बन सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ माम्–मेरी; हि–निश्चय ही; पार्थ–हे पृथापुत्र; व्यपाश्रित्य–शरण ग्रहण करके; ये–जो; अपि–भी; स्युः–हैं; पाप-योनयः–निम्नकुल में उत्पन्न; स्त्रियः–स्त्रियाँ; वैश्याः–वणिक लोग; तथा–भी; शूद्राः–निम्न श्रेणी के व्यक्ति; ते अपि–वे भी; यान्ति–जाते हैं; पराम्–परम; गतिम्–गन्तव्य को।
- ↑ 2.4.18
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