श्रीमद्भगवद्गीता -श्रील् प्रभुपाद पृ. 641

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप -श्री श्रीमद् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद

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पुरुषोत्तम योग
अध्याय 15 : श्लोक-5


निर्मानमोहा जितसग्ङदोषा
अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामा: ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ता: सुखदु:खसंज्ञै
र्गच्छन्त्यमूढा: पदमव्ययं तत् ॥5॥[1]

भावार्थ

जो झूठी प्रतिष्ठा, मोह तथा कुसंगति से मुक्त हैं, जो शाश्वत तत्त्व को समझते हैं, जिन्होंने भौतिक काम को नष्ट कर दिया है, जो सुख तथा दुख के द्वन्द्व से मुक्त है और जो मोहरहित होकर परमपुरुष के शरणागति होना जानते हैं, वे उस शाश्वत राज्य को प्राप्त होते हैं।

तात्पर्य

यहाँ पर शरणागति का अत्यन्त सुन्दर वर्णन हुआ है। इसके लिए जिस प्रथम योग्यता की आवश्यकता है, वह है मिथ्या अहंकार से मोहित न होना चूँकि बद्धजीव अपने को प्रकृति का स्वामी मानकर गर्वित रहता है, अतएव उसके लिए भगवान की शरण में जाना कठिन होता है। उसे वास्तविक ज्ञान के अनुशीलन द्वारा यह जानना चाहिए कि वह प्रकृति का स्वामी नहीं है; उसका स्वामी तो परमेश्वर है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. निः= रहित; मान= झूठी प्रतिष्ठा; मोहाः= तथा मोह; जित= जीता गया; संग= संगति की; दोषाः= त्रुटियाँ; अध्यात्म= आध्यात्मिक ज्ञान में; नित्याः= शाश्वतता में; विनिवृत्त= विलग; कामाः= काम से; द्वन्द्वैः= द्वैत से; विमुक्ताः= मुक्त; सुख-दुःख= सुख तथा दुःख; संज्ञै= नामक; गच्छन्ति= प्राप्त करते हैं; अमूढाः= मोहरहित; पदम्= पद, स्थान को; अव्ययम्= शाश्वत्; तत्= उस।

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