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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 12-22
13. जरासन्ध-वध
युधिष्ठिर की इच्छा जानकर कृष्ण इन्द्रप्रस्थ आये। स्वागत-सत्कार करके युधिष्ठिर ने कहा, “हे कृष्ण, मैं राजसूय यज्ञ करना चाहता हूं, किन्तु कोरी इच्छा से वह नहीं होता। वह जिस तरह मिलता है, तुम जानते हो। जो सबका राजा होता है, वही राजसूय का अधिकारी है। मेरे मित्र मुझसे आकर कहते हैं कि मैं राजसूय करूं। सो हे कृष्ण, इस विषय में तुम्हीं निश्चित परामर्श दो, जिससे मेरा क्षेम हो।” जरासन्ध का बाधक गुट्ट
कृष्ण ने उत्तर दिया, “हे युधिष्ठिर, तुममें राजसूय-यज्ञ के सब गुण हैं; परन्तु मेरी यह सम्मति है कि मगध की राजधानी गिरिव्रज का प्रतापी सम्राट जरासन्ध जब तक जीवित है, तब तक तुम्हारा राजसूय सफल नहीं हो सकता। उसने देश के अनेक राजाओं को गिरिव्रज की कन्दराओं में लाकर बन्द कर रखा है, जिसके कारण वह गिरिव्रज एक प्रकार से पुरुषव्रज बन गया है। वह जरासन्ध महादेव का भक्त है। हम लोग भी किसी समय शूरसेन देश में रहते थे, किन्तु कंस की मृत्यु होने पर उसकी पत्नी ने अपने पिता जरासन्ध को शूरसेन देश पर आक्रमण करने के लिए उकसाया। उस समय हमारे उदीच्य भोजों के अठारह कुल भागकर पश्चिम की ओर बिखर गए और हमने रैवतक पर्वत के समीप कुशस्थली नामक राजधानी बसाई। जरासन्ध की सेना से लड़ना हमारे लिए असंभव था। तीन सौ वर्षों तक उससे जूझने पर भी हम पार नहीं पा सकते। पहले हम लोग आनन्दित जीवन बिताते हुए मथुरा में रहते थे; किन्तु उसके आक्रमण से अपनी महती श्री को समेटकर धन-संपत्ति और बन्धु-बान्धवों के साथ पश्चिम में जाकर बस रहे। यद्यपि हमारे अठारह कुलों में अठारह हजार जान पर खेलने वाले व्रात नामक योद्धा हैं, और भी सात रथी और सात महारथी हैं, आहुक और अन्धक भोज के पुत्र रण में लोक का संहनन करने वाले हैं, फिर भी आज तक मध्यदेश के उस जीवन की टीस हम सबके हृदय से नहीं मिटती। “और भी; वह जरासन्ध अकेला नहीं है, सहायक राजाओं का पूरा समूह उसके पक्ष में है, उसने पृथ्वी के मध्य भाग को अपने अधीन करके साम्राज्य स्थापित किया है। चेदि का शिशुपाल शिष्य की भाँति उसका अनुगामी है। करूष देश का वक्र उसके साथ है। कुन्ति देश (आधुनिक कोंतवार, दतिया, ग्वालियर) का दन्तवक्र, प्राग्ज्योतिष का भगदत्त, वंग और पुंड का पौंड्रक, विदर्भ का भीष्मक- ये सब उसी जरासन्ध के गुट्ट में हैं। इसे तोड़े बिना कोई राजसूय सफल नहीं हो सकता। हे राजन, मेरी यह मति है। आगे तुम जैसा उचित समझो, निश्चित स्वयं करो।” कृष्ण की बात युधिष्ठिर ने समझ ली। उस समय की जो राजनैतिक परिस्थिति थी, उसमें जरासन्ध मगध से शूरसेन-मथुरा तक के प्रदेश को दबोच कर चट्टान की तरह दृढ़ बैठा था। सहायक राजाओं की एक श्रृंखला उसके चारों ओर कसी हुई थी। मगध से जो साम्राज्य उठ रहा था, उसके साथ टक्कर कौन ले, यही प्रश्न था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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