भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
खण्ड : 3
‘भारत सावित्री’ नाम से महाभारत की एक सांस्कृतिक व्याख्या लिखने का संकल्प मैंने लगभग दस वर्ष पूर्व किया था। इस अध्ययन को तीन खण्डों में समाप्त करने की मेरी योजना थी। तदनुसार पहला खण्ड आदि, सभा, आरण्यक और विराट पर्व की व्याख्या के रूप में सन 1957 में प्रकाशित हुआ। फिर दूसरा खण्ड उद्योग, भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य, सौप्तिक तथा स्त्री पर्व की व्याख्या के रूप में सन् 1964 में प्रकाशित हुआ। आज दो वर्ष बाद ज्येष्ठ पूर्णिमा को इसका तीसरा खण्ड समाप्त कर सका। अब इस तीसरे खण्ड में शेष सात पर्वों की व्याख्या पूरी होगी। उनके नाम, अध्यायों और श्लोकों की संख्या इस प्रकार हैः
ऊपर की संख्याएं पूना के संशोधित संस्करण के अनुसार हैं। इस प्रकार महाभारत के लगभग एक-तिहाई अंश का व्याख्यासार यहाँ रहेगा। इन वर्षों में मैंने अपने स्वास्थ्य के कारण बहुत कष्ट पाया। कभी तो मनस्तत्त्व ने शरीर का साथ निभाने से मुझे शंकाशील बना दिया। पर सौभाग्य से मेरा चिन्तन और लेखन-कार्य रुका नहीं। लगता है, मेरे पूर्व जन्म की ब्रह्म शक्ति मुझे इस मार्ग पर आगे बढ़ाती रही और पंचभूत अहंकार एवं महत् तत्त्व का यह शकट आगे बढ़ने की प्रेरणा पाता रहा। मेरे डाक्टर मित्र ने मुझसे कहा- “तुम अपना धन्धा मत छोड़ो। तुम्हें इसी मार्ग से बराबर स्वास्थ्य की तरंगें मिलती रहेंगी।” इसे वह ‘आँकूपेशनल थिरैपी’ अर्थात ‘धन्धा करते हुए स्वास्थ्य साधन की प्रक्रिया’ कहते हैं। यह नाम बड़ा सुन्दर है और मैंने जबसे इसे सुना है, यह मेरे मन में घर कर गया है। इसमें बहुत अधिक सत्यांश है। इसका मैं स्वयं अनुभवी हूँ। आज मुझे सन्तोष है कि ‘भारत सावित्री’ का यह तीसरा खण्ड मैं समाप्त कर पाया। जिन पाठकों ने इस ग्रन्थ को देखा है, उन्होंने महाभारत के भरे हुए गम्भीर दार्शनिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक अर्थों के प्रति अपनी प्रसन्नता प्रकट की है। मुझे स्वयं भी पहले अनुमान न था कि अर्थों के ऐसे स्वच्छ मानसरोवर इस संहिता में भरे हुए हैं। मुझसे जो बन पड़ा, उतना अर्थोद्धार मैंने लिखवाया है। अधिक मैं नहीं कर सका, इसके लिए पाठकों से सांजलि क्षमा याचना करता हूँ। किसी समय सासानी धर्म के सम्बन्ध में मैंने जो सामग्री एकत्र की थी और ग्रन्थों में निशान लगाकर रख दी थी, उसका पूरा उपयोग करने से अब वंचित रह गया। इस पर पूरा प्रकाश डालने के लिए सासानी धर्म की पहलवी भाषा में अच्छी जानकारी होनी चाहिए। वे पुस्तकें तो मेरे पास थीं, किन्तु अपनी नेत्र-शक्ति कम होने के कारण मैं उनसे लाभ न उठा सका। अब मेरी नम्र प्रार्थना है कि पहलवी भाषा और संस्कृत भाषा के कोई सुलझे विद्वान्, नारायणीय पर्व के तुलनात्मक अध्ययन को और आगे ले चलें। यह प्रकरण कुछ छोटा नहीं है। इसमें लगभग एक सहस्र श्लोक हैं और एक बात को कई बार कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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