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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 60-72
18. द्रौपदी-चीरहरण
परिचारक सूत ने अन्तःपुर में जाकर द्रौपदी से कहा, “हे द्रौपदी, युधिष्ठिर मदमत्त होकर द्यूत में तुम्हें हार चुके। दुर्योधन ने तुम्हें जीत लिया है। अब तुम धृतराष्ट्र के घर में काम करने के लिए मेरे साथ वहाँ चलो।” द्रौपदी ने कहा, “अरे सूत, यह क्या कहते हो? कहीं कोई राजपुत्र अपनी स्त्री को भी जुए में हारता है? क्या मूढ़ राजा के पास और कुछ दांव लगाने के लिए नहीं रह गया था?” सेवक ने उत्तर दिया, “हां, जब राजा के पास कुछ और नहीं रहा, तब उसने तुम्हें दांव पर रख दिया। हे राजपुत्री, तुम्हें दांव पर रखने से पूर्व वह राजा अपने भाइयों को और अपने आपको भी दांव पर लगा चुका था।” द्रौपदी ने कहा, “हे सूतपुत्र, जाओ और इस द्यूतकारी राजा से सभा में पूछो कि पहले उसने अपने आपको हारा या मुझे? यह जानकर आओ, फिर मुझे ले चलो।” सूतपुत्र ने सभा में जाकर द्रौपदी का प्रश्न दोहराया। उसे सुनकर युधिष्ठिर को जैसे काठ मार गया। हां, नहीं-उनके मुंह से कुछ न निकला। इस पर दुर्योधन ने कहा, “द्रौपदी यहाँ आकर प्रश्न कहे। यहीं सब लोग उसका प्रश्न और युधिष्ठिर का उत्तर सुनें।” दुर्योधन के वशवर्त्ती उस सूत ने व्यथित होकर वह बात जाकर कही, “हे राजपुत्री, सभ्य तुम्हें वहीं बुलाते हैं। जान पड़ता है कि कौरवों का नाश आ गया है।” सुनते ही द्रौपदी सन्नाटे में आ गई। उसने अपने महान चरित्र की सारी शक्ति बटोरकर कहा, “विधाता इसी प्रकार पण्डित और मूर्ख को दुःख-सुख दिया करता है। इस लोक में धर्म ही महान है। उसी की रक्षा करने से कल्याण होगा।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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