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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
खण्ड : 2
भूमिका
‘भारत सावित्री’ यह नाम महाभारत के अन्त में आया है। महाभारत के सारांश के लिए स्वयं वेदव्यास की लेखनी से यह शब्द निकला है। मैंने वहीं से इसे लिया है, जैसे सावित्री वेदों का सार है और वह सरस्वती का पर्याय है, वैसे ही यहाँ भी वाणी के अर्थ में ‘सावित्री’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। ‘भारत सावित्री’ के रूप में महाभारत का ही सार लिया गया है। यह सर्वथा वेदव्यास की ही वाणी है। महाभारत के पात्र-चित्रण की दृष्टि से यह दूसरा खण्ड और भी महत्त्वपूर्ण है। क्रमशः घटनाओं ने ऐसा मोड़ लिया कि दोनों पक्ष युद्ध-बिन्दु तक पहुँच ही गये। उस भंवर में कूद पड़ने तक दोनों ओर के नेताओं की मनोवृत्ति का जो विकास हुआ, उसकी स्पष्ट झांकी हमें विराट पर्व एवं विशेषतः उद्योग पर्व में मिलती है। घटनाओं के इस वेग से बढ़ते हुए विकास में राजा धृतराष्ट्र का व्यक्तित्व सबसे अधिक उभरा हुआ है। वे नियतिवादी दर्शन के अनुयायी थे। एक ओर भाग्य के लेख में उनका अटल विश्वास था और दूसरी ओर अपने पुत्र दुर्योधन के लिए उनके मन में इतना मोह था कि उसके सामने आते ही वे अपनी न्याय-बुद्धि खो बैठते थे। विदुर, संजय एवं कृष्ण ने कितना प्रयत्न किया कि धृतराष्ट्र को समझाकर उनके पद का प्रभाव युद्ध टालने में प्रयुक्त हो सके, किन्तु हर बार धृतराष्ट्र ने घुटने टेक दिये। इस खण्ड की दूसरी विशेषता कृष्ण के उदात्त चरित्र और महान व्यक्तित्व का चित्रण है। भारत-युद्ध की घटनाओं में न्याय और सत्य का आश्रय लेकर उन्होंने जिस प्रकार अपने कर्त्तव्य का पालन किया और कौरवों की सभा में स्वयं जाकर शान्ति का प्रस्ताव रखा, वह अत्यन्त प्रभावशाली प्रकरण है। उससे उनके साहस, प्रभाव एवं दृढ़ सत्य का परिचय प्राप्त होता है। दुर्योधन और कर्ण के सामने सन्धि की चर्चा पहले से ही असिद्ध थी, फिर भी कृष्ण ने अपने प्रज्ञा-बल का भरपूर उपयोग किया। जब वे युद्ध की घटनाओं को नहीं हटा सके, तब शस्त्र-प्रयोग ही एक मात्र मार्ग रह गया था और उस पर चलने से कुरु-कुल स्वाहा हो गया। इन पर्वों में संहार का जो रोमान्चकारी वर्णन है, सांस्कृतिक दृष्टि से हमें उसमें रुचि नहीं है। अतएव उस कथा-भाग को अति संक्षेप में लिख दिया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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