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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
1. आदि पर्व
अध्याय : 57
4. शकुन्तलोपाख्यान
महाभारत के आदि-पर्वसंज्ञक प्रथम पर्व में अनुक्रमणी और पर्व-संग्रह पर्व के अनन्तर पौष्य-उपाख्यान, उसी के अन्तर्गत उत्तंक-उपाख्यान, पौलोम-पर्व, रुरु और प्रमद्वरा का उपाख्यान, आस्तीक-जन्म-कथा, अमृत-मन्थन, सौपर्ण-उपाख्यान, जनमेजय का सर्प-सूत्र और तक्षक-मोक्ष, इतनी कथाएं भूमिका रूप में कही गई हैं। इसके अनन्तर कुरु-पाण्डव-चरित्र का आरम्भ होता है। उसमें पहला आदिवंशावतरण-पर्व[1] है। इसके आरम्भ में चेदि देश के राजा वसु उपरिचर की कहानी है। राजा वसु वैरागी बनकर आश्रम में तप करने लगे और क्षत्रियोचित अस्त्रों को उन्होंने त्याग दिया। तब इन्द्र ने साक्षात उपस्थित होकर उन्हें समझायाः “हे पृथ्वीपति, पृथ्वी के योग्य यह धर्म नहीं है। तुम उस धर्म की रक्षा करो, जिसके धारण करने से इस जगत को धारण किया जा सकता है। वही लोक का कल्याण करने वाला लोक्य-धर्म है। उसमें सावधान होकर अपना मन लगाओ। पृथ्वी पर उस धर्म से युक्त होगे तो द्युलोक से मैं पृथ्वी पर स्थित तुम्हें अपना प्रिय सखा मानूंगा। तुम नर्मदा से सिंचित उस चेदि जनपद में निवास करो, जो पृथ्वी का दूध से भरा हुआ स्तन है और जो पशु, धन-धान्य और रत्नों से पूर्ण है। वहाँ के मनुष्य धर्मशील और साधु हैं। वहाँ हंसी में भी कोई झूठ नहीं बोलता। चेदि जनपद में वसुधा वसु से पूर्ण है, सब वर्ण स्वधर्म में स्थित हैं और भूमि के जितने योग्य गुण हैं, वे सब वहाँ विद्यमान हैं। मैं तुम्हें स्फटिक का बना हुआ आकाशचारी एक विमान देता हूं, जिसके कारण तुम शरीरधारी देवता की भाँति सर्वत्र विचरोगे। दूसरे, मैं तुम्हें वैजयन्ती माला देता हूं, जिसके कमल कभी मुरझाते नहीं। इस इन्द्रमाला को धारण करने पर कोई भी संग्राम में तुम्हें शस्त्रों से न जीत सकेगा।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अ. 57-61
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