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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 74-90
अगले अध्याय में ऐल पुरुरवा और कश्यप के संवाद के रूप में राजा के लिए अच्छे पुरोहित की प्रशंसा की गई है, और उस वैदिक सिद्धान्त की व्याख्या है, जिसके अनुसार पुरोहित ब्राह्मण और क्षत्रिय राजा एक दूसरे से मिलकर रहते हैं।[1] जब क्षत्रिय ब्राह्मण पुरोहित को त्याग देते हैं, तो उस राजा के राज्य में न वृषभ बोझा ढो सकते हैं और न दही-दूध के मटके महे जाते हैं और न यज्ञ होता है। वैदिक स्वाध्याय का क्रम टूट जाता है और सारे राज्य में दस्यु बढ़ जाते हैं। ब्रह्म और क्षत्र एक-दूसरे के आधे हैं। ये दोनों एक-दूसरे के अनुकूल रहकर ही महती श्री का संवर्धन करते हैं। इनके आपसी विरोध से सब कुछ संप्रमूढ़ हो जाता है। यहाँ उस सन्धि पुराण का उल्लेख है जिसका वर्णन पाणिनि ने मिश्रं चानुपस्वर्गमसन्धौ[2] सूत्र में किया है जिसके अनुसार ब्राह्मण मन्त्री और क्षत्रिय राजा एक दूसरे से मिलकर रहते थे। कौटिल्य के ग्रन्थ में ब्रह्म-क्षत्र की सन्धि का जो परम्परागत अर्थ था, वह काशिका के उदाहरण में मिलता है।[3] दोनों के लिए इस पुराण सन्धि का पालन आवश्यक था। उनके उदाहरण मगधराज अजातशत्रु और उनके महामन्त्री वर्षकार, कोशलराज विडूडभ के महामन्त्री दीर्घचारायण, वत्सराज उदयन के महामन्त्री यौगन्धरायण, मगधाधिपति चन्द्रगुप्त मौर्य के मन्त्री आचार्य चाणक्य, अशोक के राधगुप्त, अवन्तिराज महापालक के महामन्त्री आचार्य पिशुन, चण्डप्रद्योत के भरत रोहक, अवन्तिराज अंशुमुख के आचार्य घोटमुख, कोसलराज परंतप के कणिंकभारद्वाज, पन्चालराज ब्रह्मदत्त के आचार्य बाभ्रव्य आदि नामों से मिलते हैं। यदि ब्राह्मण-रूपी ब्रह्मवृक्ष की रक्षा की जाय तो वह मधु और सुवर्ण की वृष्टि करता है और यदि उसकी रक्षा न की जाय तो वह आंसुओं से रोता है। ऐल-कश्यप-संवाद के रूप में ब्रह्म और क्षत्र के धर्म का वर्णन किया गया है और पाप और पुण्य का सुन्दर चित्र खींचा गया है। इस वर्णन का यह श्लोक अति उदात्त हैः पुण्यस्य लोको मधुमाद् धृतार्चिर्हिरण्यज्योतिरमृतस्य नाभिः। इन बड़े और तेजस्वी श्लोकों की रचना किसी प्राचीन वैदिक चरण में हुई जान पड़ती है।[5] अध्याय 75 में मुचकुन्द और वैश्रवण के संवाद के रूप में यह कहा गया है कि कुबेर ने मुचकुन्द को राज्य देने की इच्छा प्रकट की, किन्तु मुचकुन्द ने उसे लेने से इन्कार कर दिया जिसे उसने स्वयं अपने बाहुबल से न जीता हो।[6] राजा के लिए आचार धर्म यह भी कहा गया है कि यदि वह चोरी किये हुए धन का पता न लगा सके, तो अपने कोश से उसकी पूर्ति करे।[7] अध्याय 78 में 34 श्लोकों का गीत है, जिसे केकय देश के राजा ने राक्षस और दस्युओं के निराकरण के लिए गाया था। इस गान का पहला श्लोक वही है, जो छान्दोग्य उपनिषद् में मिलता हैः न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः। इस प्रकार के राजधर्म विषयक कई गीतों को यहाँ उद्धृत किया गया है। ज्ञात होता है कि जनपद युग में उनकी रचना ग्रामीण कविता के रूप में हुई थी।[8] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यत्र ब्रह्म च क्षत्रं च सम्यं चौ चरतः सह। अथर्ववेद; ब्रह्मक्षत्रं हि सर्वेषां धर्मात्मां मूलमुच्यते 74।5
- ↑ 6।2।154
- ↑ ब्राह्मणमिश्रो राजा। ब्राह्मणैः सह संहिता एकार्थ्यमापन्नः
- ↑ 26। 74
- ↑ अ. 74
- ↑ नाहं राज्यं भवद्दोत्तं भोक्तुमिच्छामि पार्थिव।
बाहुवीर्यार्जितं राज्यमश्नीयामिति कामये।।75। 18 - ↑ प्रत्याहर्तुमशक्यं स्यात् धनं चोरैर्हतं यदि।स्वकोशात्तत् प्रदेयं स्यात् अशक्तेनोपजीवता।। (76। 10)
- ↑ अ. 78
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