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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
6. भीष्म पर्व
अध्याय : 43-45
55. भीष्म-युद्ध-वर्णन
गीता का उपदेश सुनकर अर्जुन युद्ध के लिए तैयार हो गया। अब युद्ध भूमि में एकत्र हुई दोनों सेनाएं संग्राम के लिए सन्नद्ध डटी हुई थी। युद्ध आरम्भ होने ही वाला था कि युधिष्ठिर के मन में श्रद्धा का एक भाव जाग उठा। उन्होंने सोचा कि पितामह भीष्म और गुरु द्रोण की अनुमति और आर्शीवाद के बिना युद्ध करना ठीक नहीं। वे रथ से उतरकर पैदल ही, कवच और शस्त्र भी छोड़कर नंगे पैर कौरव सेना की ओर चले और भीष्म के पास पहुँचकर उन्हें प्रणाम करके युद्ध के लिए उनकी अनुमति और आशीर्वाद मांगा। भीष्म उनके इस भाव से द्रवित हो गये और इस अवसर पर आत्मग्लानि का अनुभव करते हुए उन्होंने कौरवों के पक्ष में अपनी स्थिति का कुछ समाधान रूप में यों कहा, “हे युधिष्ठिर, पुरुष अर्थ का दास होता है, अर्थ किसी का दास नहीं। कौरवों ने मुझे अर्थ के द्वारा बान्ध लिया है। मुझे तो उनके लिए युद्ध करना ही है, तुम और क्या चाहते हो?” युधिष्ठिर ने कहा, “महाराज, आप अवश्य कौरवों की ओर से ही युद्ध करें, पर यदि आप मेरा हित सोचते हों, तो कृपया बताएं कि आप जैसे अपराजित वीर को हम कैसे जीत सकेंगे?” भीष्म ने कुछ सोचकर स्पष्ट कहा कि जब मैं युद्ध में उतरूंगा तो कोई पुरुष मुझे नहीं जीत सकेगा। इसकी व्यंजना युधिष्ठिर ने समझ ली और इसी कारण आगे चलकर शिखंडी को भीष्म के सामने खड़ा किया गया। इसके बाद युधिष्ठिर द्रोण के पास गये और उन्हें प्रणाम किया। द्रोण ने भी भीष्म के समान ही अपने आपको कौरवों के पक्ष में अर्थ के द्वारा बन्धा हुआ कहा, किन्तु यह आश्वासन दिया कि भले ही मैं कौरवों की ओर से लड़ूं, पर विजय तुम्हारी ही चाहता हूँ। इसके बाद उन्होंने कृपाचार्य के पास जाकर उनका भी आशीर्वाद प्राप्त किया और फिर अपने मामा मद्रराज शल्य को प्रणाम करके युद्ध की आज्ञा चाही। महाभारत के वर्तमान संस्करण में यहाँ एक इतना मोड़ और पाया जाता है कि इसी बीच में कृष्ण ने भी कर्ण के पास जाकर उससे पाण्डवों के पक्ष में आने का अन्तिम अनुरोध किया, “हे कर्ण, मैंने सुना है कि भीष्म की खीज से तुम उनके जीते जी युद्ध नहीं करोगे। अतएव जब तक भीष्म मारे नहीं जाते तब तक के लिए हमारे पक्ष में आ जाओ, फिर दुर्योधन के पक्ष में चले जाना।” पर कर्ण तो दूसरी ही मिट्टी का बना था। उसने स्पष्ट कहा, “मैं दुर्योधन का अनहित नहीं करूंगा। उसके हित में ही मेरे प्राणों को गया हुआ समझो।” तब सेना के बीच में खड़े होकर युधिष्ठिर ने आवाज लगाई, “जो हमारे पक्ष में लड़ना चाहें, वे हमारी ओर आ जायं।” और किसी पर तो इसका प्रभाव नहीं हुआ, केवल युयुत्सु कौरवों का पक्ष छोड़कर पाण्डवों की ओर आ गया। सबने अपने कवच पहने और युद्ध के लिए अनेक प्रकार की दुन्दुभियां और शंख बज उठे। दोनों सेनाओं में कड़खा गाया जाने लगा और तुमुल युद्ध आरम्भ हो गया। सर्वप्रथम भीष्म अपने धनुष को टंकारते हुए अर्जुन की ओर बढे़ और उस पर प्रहार किया। अर्जुन ने भी अपने गाण्डीव से उनका उत्तर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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