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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
13. अनुशासन पर्व
अध्याय : 1-146
अनुशासन पर्व में जो शिव महिमा के अध्याय हैं, वे उस युग के शैव, माहेश्वर, पाशुपत आदि सम्प्रदायों में भगवान शिव के गौरव और लोकप्रिय स्वरूप का परिचय देते हैं। यदि शिव सम्बन्धी यह वर्णन यहाँ न लिया गया होता तो शान्ति और अनुशासन का यह विस्तृत वर्णन अधूरा रहता, क्योंकि शैवधर्म मोक्ष प्राप्ति का एक निश्चित मार्ग करता था। लगभग पहली शती से लेकर सातवीं शती तक पाशुपत धर्म के आचार्यों ने महाराष्ट्र से मालवा तक और वाराणसी-मथुरा से कुरुक्षेत्र तक शैवधर्म के रूप में दर्शन और उपासना की प्रभावशालिनी रसधारा बहा दी थी और जनता के मन को मुग्ध कर लिया था। भगवान शिव का जो स्वरूप वैदिक युग से चला आया था, वह और भी बद्धमूल हो गया। पाशुपत आचार्यों ने जो सात्त्विक कार्य किया उसका कुछ नमूना यहाँ है, किन्तु उसका पूरा विवरण लिंग पुराण और शिव पुराण में पाया जाता है। यह उल्लेखनीय है कि कुषाण सम्राट वेमतक्ष्म ने करोड़ों सिक्के ढबवाये थे। उन सबके एक ओर शिव और उनके नन्दिवृष की मूर्ति रहती थी। वह युग शैवधर्म के परम उत्कर्ष का काल था और उसी समय यह सामग्री पहली से तीसरी ई. शती तक आयी होगी। अध्याय 140-142 में भी शिव महादेव का वर्णन है। और भी छोटे-मोटे विषयों में ब्राह्म महिमा अ. 38-47, 151-157, तप महिमा, अहिंसा, गृहस्थ महिमा 48, 49, 50-51, 93-94 आदि, यज्ञ-धर्म-महिमा आदि का संग्रह किया गया है, पर उनमें कोई नयी बात या वैचित्र्य नहीं है। अध्याय 162 से 168 तक भीष्म के प्राण त्याग का वर्णन है। कई महत्त्व के आख्यानों में नचिकेतोपाख्यान, नृगोपाख्यान, अष्टावक्रचरित, कार्तिकेय उपाख्यान, नहुषचरित इसी पर्व में संग्रहीत हैं। इस प्रकार अनुशासन पर्व कई फुटकर विषयों का संग्रह मात्र है। इसमें शान्तिपर्व जैसे महत्त्वपूर्ण सामग्री का प्रायः अभाव है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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