विषय सूची
भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 168-353
85. मोक्षधर्म पर्व
शान्तिपर्व का तीसरा भाग मोक्षधर्म पर्व के नाम से प्रसिद्ध है। यह परिमाण में राजधर्म और आपद्धर्म को मिलाकर दोनों से बड़ा है। यह शान्तिपर्व का हीरक है। इसके 186 अध्यायों में धर्म और दर्शन की सामग्री का अपरिमित भण्डार है। उसके तीन स्तर हैं। पहले स्तर में कई नास्तिक मतों का उल्लेख है, जिनका वर्णन बौद्ध साहित्य में मिलता है, जैसे नियतिवाद, अक्रियावाद। इसी के साथ ब्रह्ममूलक आस्तिक दर्शन का भी विस्तार से विवेचन है। दूसरे स्तर के कितने ही अध्यायों में सांख्य और योग, इन दो दर्शनों का वर्णन है। तीसरे में पंचरात्र, भागवत या नारायण-धर्म का वर्णन है।[1] उस युग की शैली यह थी कि अनेक आचार्य मोक्षप्राप्ति के लिए अपना-अपना मत प्रकट करते थे और अपने शिष्यों में उसका प्रचार करते थे। उनका तथाकथित उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति था। इसीलिए उन्हें मोक्षधर्म शीर्षक के अन्तर्गत संग्रहीत किया गया है। मोक्ष की ही संज्ञा परमगति थी। यह उल्लेखनीय है कि पाणिनि ने इन मतों का वर्गीकरण करते हुए इन्हें आस्तिक, नास्तिक और दैष्टिक (नियतिवाद) मति कहा है। मति को ही दृष्टि या दिट्ठि कहा जाता था। दृष्टि का अर्थ दृष्टिकोण अर्थात मोक्ष या जीवन के विषय में एक अभिमत या ज्ञापन है। यह भी स्मरणीय है कि इस प्रकार के सैकड़ों मत थे और उनमें परस्पर आदान-प्रदान भी खूब रहता था। अतः एक-एक आचार्य की दृष्टि के अन्तर्गत एक मुख्य के अतिरिक्त कई अवान्तर मतों का संस्पर्श भी रहता था। इन सिद्धान्तों में से कुछ के बारे में नीचे बताया जा रहा है। लोकपर्यायवाद
लोक में सब घटनाएं बारी-बारी से होती हैं। यही लोकपर्याय वृत्तान्त है, जिसे हम अपने चारों ओर घटित होता हुआ देखते हैं। सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख आता है। हम देखते हैं कि कोई दुःख में फंसा है और कोई सुख में लाहालोट हो रहा है, पर इसका कोई निश्चित कारण नहीं बताया जा सकता। आत्मा भी अपना नहीं है और कभी हो भी सकता है। ऐसे ही सारी पृथ्वी कभी अपनी होती है, कभी दूसरे की। बुद्धि, तप, समाधि, ज्ञान, श्रुत इन्हें प्राप्त करके भी विवाद या दुःख हो सकता है। इस प्रकार की बुद्धि रखने से मुझे न हर्ष होता है, न शोक। मैं मानता हूँ कि इस जीवन में संयोग और वियोग, संचय और व्यय दोनों अवश्यंभावी हैं। जैसे पानी में तैरते दो काठ मिलकर अलग हो जाते हैं, वैसे ही प्राणी मिलते हैं और बिछुड़ते हैं। इसलिए पुत्र-पौत्र, बन्धु-बान्धवों से स्नेह नहीं करना चाहिए, क्योंकि एक-न-एक दिन उनसे अलग होना पड़ेगा। यह जीव किसी अदृष्ट स्त्रोत से आया है और अदृष्ट में ही जा मिलेगा।[2] हम देखते हैं कि सुख-दुःख-समत्व, हर्ष-शोक-समत्व और अव्यक्त आदि के जो सिद्धान्त गीता में हैं, वे लगभग यही हैं। तृष्णा से दुःख होता है। इससे सूचित होता है कि तृष्णा को दुःख मानने का मत भी इसके साथ था, जिसे बुद्ध ने स्वीकार किया। यहाँ आगे कहा गया है, सुख के अनन्तर दुःख और दुःख के अनन्तर सुख आता है। न नित्य कोई व्यक्ति सुखी देखा जाता है, न नित्य दुःखी ही। मित्रों से सदा सुख और शत्रुओं से सदा दुःख नहीं होता। प्रज्ञा से सब अर्थ मिल जाय और धन से सुख मिल जाय, यह भी निश्चित नहीं है।[3] ऐसा जान पड़ता है, यहाँ इस मत में प्रज्ञावाद पर भी एक हल्की चोट की गई है। इस मत के अनुयायी प्रज्ञा के लिए कुछ आस्था रखते थे, पर उसको भी लोक के घूमते हुए पहिए के अनुसार ही स्थान देते थे। प्रज्ञा कभी काम बनाती है, कभी नहीं। बुद्धि से धन मिलता है और मूर्खता से दरिद्रता ही, यह भी निश्चित तथ्य नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अ. 321-353
- ↑ हृष्यन्तमवसीदन्तं सुखदुःखविपर्यये।
आत्मानमनुशोचामि यो ममेष हृदि स्थितः।।
आत्मापि चायं न मम सर्वा वा पृथ्वी मम।।13।।
यथा मम तथान्येषामिति बुद्ध्या न ने व्यथा।
एता बुद्धिमहं प्राप्य न प्रहृष्ये न च व्यथे।।14।।
यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महोदधौ।
समेत्य च व्यपेतायां तद्वद् भूतसमागमः।।15।।
एवं पुत्रपौत्राश्व ज्ञातयो बान्धवास्तथा।
तेषु स्नेहो न कर्तव्यो विप्रयोगो हि तै र्ध्रवम्।।16।।
अदर्शनादापतितः पुनश्वादर्शनं गतः।
न त्वासौ वेद न त्वं कः सन्कमनुशोचसि।।17।। - ↑ सुखात्संजायते दुःखमेवमेतत्पुनः पुनः।
सुखस्यान्तरं दुःखं दुःखस्यान्तरं सुखम्।।18।।
सुखात्वं दुःखमापन्नः पुनरापत्स्यसे सुखम्।
न नित्यं लभते दुःखं न नित्यं लभते सुखम्।।19।।
नालं सुखाय सुहृदो नालं दुःखाय शत्रवः।
न च प्रज्ञालमर्थानां न सुखानामलं धनम्।।20।।
न बुद्धिर्धनलाभाय न जाङ्यमसमृद्धये।
लोकपर्यायवृतान्तं प्राज्ञो जानाति ने तरः।।21।।
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