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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 47
अध्याय 46 में वर्णन है कि युधिष्ठिर ने कृष्ण की प्रशंसा में कुछ वाक्य कहे, जिन्हें सुनकर कृष्ण ने कुछ उत्तर नहीं दिया बल्कि मन की समाधि में चले गये। इस पर आश्चर्य से युधिष्ठिर ने इसका कारण पूछा। कृष्ण ने उत्तर दिया- “भीष्म इस समय शरशैय्या पर पड़े हुए बुझती हुई अग्नि की भाँति शान्त हो रहे हैं और वे हृदय से मेरा स्मरण कर रहे हैं। अतः मेरा मन उन्हीं के पास चला गया है। तुम भी उन्हीं के पास चलो! चारों वेद, चारों ऋत्विज, चारों आश्रम और चारों वर्णों के धर्मों को उनसे पूछो। कौरवों में धुरन्धर उन भीष्म के अस्त हो जाने पर जितने ज्ञान हैं सब स्वल्प हो जायंगे। इसलिए मैं तुम्हें उनके पास चलने की प्रेरणा कर रहा हूँ।”[1] यह सुनकर युधिष्ठिर की आंखों में आंसू आ गये और उन्होंने कहा- “आपने भीष्म से जो कहा सब ठीक है। वैसा ही ब्राह्मणों के मुख से हमने भी सुना है। मैं आपके साथ भीष्म के दर्शन करना चाहता हूँ। सूर्य के उत्तरायण होने पर फिर वह जीवित नहीं रहेंगे।” तब कृष्ण ने सात्यकि से अपना रथ तैयार करवाने को कहा और सात्यकि से सूचना पाकर उनका सारथी दारुक रथ ले आया। कृष्ण को साथ लेकर युधिष्ठिर कुरुक्षेत्र में वहाँ गये जहाँ भीष्म शरशैय्या पर पड़े हुए थे। उनके दल में चारों भाई और कृपाचार्य आदि गुरुजन भी थे। इस कथा-प्रवाह के बीच में एक विचित्र प्रकरण अध्याय 47 में पाया जाता है, जो सर्वथा किसी भागवत भक्त द्वारा उपबृंहित गुप्त युग की रचना है। इसका नाम भीष्म स्तवराज है। 71. भीष्म स्तवराजऊपर कहा जा चुका है कि कृष्ण का मन समाधि के अवस्था में आ गया था और वे भीष्म का चिन्तन कर रहे थे। उधर भीष्म भी जो कुरुक्षेत्र में थे, मन की समाधि दशा में आ गये और प्रान्जलि मुद्रा में कृष्ण का ध्यान करने लगे।[2] ध्यान की उस दशा में उन्होंने कृष्ण के लिए एक अत्यन्त विलक्षण स्तोत्र पढ़ा। वह भीष्म स्तवराज[3] के नाम से प्रसिद्ध है। उसे भगवद्गीता और विष्णुसहस्रनाम के समान समझा जाता है। इसमें सन्देह नहीं कि अध्याय 46 के अन्त और अध्याय 48 के आरम्भ का सम्बन्ध शब्दशः मिला हुआ है। उनके बीच आया हुआ भीष्म स्तवराज उत्तरकालीन रचना है, यह उसकी शैली और शब्दावली से प्रकट है। इस स्तोत्र के भावों की प्रशंसा शब्दों में करना कठिन है। स्तोत्र के आरम्भ के 12 श्लोकों में भगवान के नामों की सूची[4] है, जैसे शुचि, शुचिषद्, हंस, परमेष्टी, आत्मा, प्रजापति, भूतेश, विश्वकर्मा, सहस्रशीर्षा, सहस्रपाद, सहस्रचक्षु, नारायण, सत्यकर्मा, सात्व्तपति इत्यादि। इसके बाद श्लोक 23 से 54 तक की शैली भिन्न है। वह स्वतंत्र ‘नमः स्तोत्र’ है। 32 श्लोकों में ग्रथित होने के कारण उस युग में इसकी द्वात्रिंशिका के रूप में रचना की गई थी। उसे ‘नमःस्तव-द्वात्रिंशिका’ कहा जा सकता है। प्रत्येक श्लोक के अन्तिम चरण में भगवान के एक-एक रूप का वर्णन चतुर्थी विभक्ति के साथ जुड़े हुए नमः शब्द से है। जैसे सूर्यात्म ने नमः, सामात्मने नमः, वेदात्मने नमः, ज्ञानात्मने नमः, हंसात्मने नमः आदि। यह तो एक द्वात्रिंशिका है। किन्तु गुप्त युग में 32 द्वात्रिंशिकाओं की भी रचना की जाती थी। उनकी श्लोक संख्या 32 x 32 = 1024 होती थी। सिद्धसेन दिवाकर ने विभिन्न विषयों को लेकर बत्तीस बत्तीसियां लिखी थीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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