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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
5. उद्योग पर्व
अध्याय : 93
49. धृतराष्ट्र की सभा में कृष्ण
दूसरे दिन शकुनि के साथ दुर्योधन ने विदुर के घर आकर कृष्ण से कहा, “राजा धृतराष्ट्र सभा में बैठे आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।” यह सुनकर कृष्ण रथ पर बैठकर सभा में आये। वहाँ सहस्रों राजा उनके स्वागत में उठ खड़े हुए और धृतराष्ट्र द्वारा निर्दिष्ट स्वर्ण-खचित सर्वतोभद्र आसन पर उनको बैठाया गया। जैसे सोने में जड़ी हुई मणि शोभित होती है वैसे ही कृष्ण सभा में प्रकाशित हुए। यथा स्थित होने पर कृष्ण ने अपना भाषण आरम्भ कियाः अप्रणाशेन वीराणामेतद्याचितुमागतः।।[1] हे भारत! कौरवों और पाण्डवों में बिना योद्धाओं के नष्ट हुए शान्ति हो जाए, इसके लिए यत्न करने मैं आया हूँ। हे राजन! आपके हित के लिए और मुझे कुछ कहना नहीं है, क्योंकि आप सब जानते हैं। आपका कुल आज सब राजकुलों में उत्तम है और उनमें अनेक गुण भी हैं। कृपा, करुणा, ऋजुता, क्षमा और सत्य कुरुवंश की विशेषता है। ऐसे महान राजकुल में आपके होते हुए किसी अनुचित बात का होना ठीक नहीं। भीतर और बाहर कहीं भी कुरुओं द्वारा मिथ्याचार हो तो आप ही रोकने वाले हैं। दुर्योधनादि आपके पुत्र अर्थ और धर्म को पीछे फेंककर निष्ठुर आचरण पर उतारू हैं। लोभ ने उनके चित्त को ग्रस लिया है और उन्होंने अपने बन्धुओं के प्रति शिष्ट मर्यादा भी छोड़ दी है। यह भारी विपत्ति कौरवों पर आई है, यदि इसकी उपेक्षा की गई, तो सब पृथ्वी नष्ट हो जायगी। आप चाहेंगे तो विपत्ति टल सकेगी। मेरे मत से अभी शम कठिन नहीं हुआ। दोनों पक्षों में शान्ति आपके और मेरे अधीन है; आप कौरवों को रोक लें, मैं पाण्डवों को समझा दूंगा। पुत्रों को आपकी आज्ञा माननी चाहिए। आपके शासन में रहने में ही उनका हित है। पाण्डव मेरा शासन मानते हैं और मैं उनकी ओर से शान्ति के लिए यत्न करने आया हूँ। स्वयं कसौटी पर कसकर आप जो उचित हो, करें। यदि भरतवंशी मिलकर रहेंगे तो आप ही उनके अधिपति होंगे। आप धर्म और अर्थ की मर्यादा बनाये रखें तो पाण्डव आपके रक्षक हैं। उनके जैसे व्यक्ति कठिनाई से होते हैं। महात्मा पाण्डव आपके रक्षक हों तो देवराज भी आपको जीतने का साहस नहीं कर सकता और राजाओं की तो बात ही क्या है? जिस दल में भीष्म, द्रोण, कर्ण, अश्वत्थामा, जयद्रथ, युधिष्ठिर, भीमसेन और अर्जुन जैसे बली हों, उनसे कौन युद्ध करेगा! उनके साथ होने से जो राजा आपके समान हैं या आपसे भी उत्कृृष्ट हैं वे सन्धि कर लेना चाहेंगे। पुत्र-पौत्र, भ्राता, पिता और सुहृत इन सबसे रक्षित होकर आप सुखपूर्वक जी सकेंगे। पूर्व के समान पाण्डवों का सत्कार करके आप सारी पृथ्वी का भोग करेंगे। अपने पुत्र और पाण्डुपुत्रों के साथ अन्य शत्रुओं को जीतना ही आपका सम्पूर्ण स्वार्थ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 93।3
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