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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व
अध्याय : 7-39
इसके बाद कृष्ण के कहने से पुरोहित धौम्य ने सबकी उपस्थिति में युधिष्ठिर का राज्याभिषेक किया और युधिष्ठिर ने अपना महान राज्य विधिवत् प्राप्त किया।[1] यहाँ प्रजाओं की सान्त्वना के लिए युधिष्ठिर ने कुछ वाक्य कहे- “पाण्डव लोग धन्य हैं जिनका गुणगान ब्राह्मण कर रहे हैं। मैं तो धृतराष्ट्र की सेवा के लिए जीवित हूँ। आप भी उन्हें ही अपना स्वामी समझिये।[2] इनके प्रति आप पहले जैसा भाव बनाये रखिये। समस्त पृथ्वी और पाण्डव इन्हीं के हैं, मेरा यही कहना है। आप लोग इनका अनुगमन करके अपने-अपने स्थान को जायं।” इसके बाद युधिष्ठिर ने भीमसेन को युवराज पद दिया, मन्त्रषाड्गुण्य विचार विदुर को, कृताकृतपरिज्ञान और आय-व्यय चिन्तन संजय को, सेना की संख्या और उसके लिए भक्त-वेतन का प्रबन्ध नकुल को, परचक्र को उपरोध और उपमर्दन अर्जुन को, ब्राह्मणों से सम्बन्धित वैदिक कार्य धौम्य को सौंपा। सहदेव को अंगरक्षक के रूप में अपने पास रहने का आदेश दिया। और जिसको जिस कर्म के योग्य समझा उसको वैसी आज्ञा दी। इसके बाद युधिष्ठिर ने कर्ण, द्रोण आदि सबके लिए और्ध्वदेहिक श्राद्ध कर्म किये।[3] जब युधिष्ठिर ने अपना राज्य पुनः पा लिया तो उनके लिए यह आवश्यक था कि कृष्ण की प्रशंसा में कुछ शब्द वे कहें, “हे कृष्ण, आपके प्रसाद, नीति, बल, बुद्धि, विक्रम से मैंने अपना पितृ-पैतामह राज्य फिर पा लिया।” किन्तु ऐसे अनुकूल अवसर पर किसी भागवत लेखक ने कृष्ण का एक सार-गर्भित स्तोत्र जोड़ दिया है, जिसमें विश्वकर्मा, पृश्निगर्भ, धृतार्चिः, हंस, शिपिविष्ट, उरुक्रम, वाजसनि, सिन्धुक्षित्, त्रिवृत्, कृष्णवर्त्मा, वृषाकपि, हिरण्यगर्भ, पतंग आदि वैदिक विशेषणों के साथ कृष्ण, अच्युत, सात्वत, केशव आदि लौकिक संस्कृत के शब्द भी हैं। इस प्रकार वेद और लोक दोनों अध्ययन करके ऐसे स्तोत्र बनाये जाते थे। भागवत में भी वे कई जगह आये हैं। यह स्तोत्र गुप्त युग में विकसित संस्कृत भाषा की समृद्धि का उदारहण है।[4] यह 51 नामों का स्तोत्र है। तब युधिष्ठिर ने अर्जुन आदि अपने भाइयों से कहा- “आप लोगों ने वन में और रण में बहुत कष्ट सहे हैं। अब विश्राम कीजिये।” युधिष्ठिर के कहने और धृतराष्ट्र की अनुमति से भीम ने दुर्योधन के भवन में प्रवेश किया। अर्जुन ने दुःशासन के भवन में, नकुल ने दुर्मर्षण के और सहदेव ने दुर्मुख के भवन में राजा की आज्ञा से प्रवेश किया। सात्यकि के साथ कृष्ण ने अर्जुन के भवन में जाकर भोजन किया और फिर युधिष्ठिर के पास आये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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